बुधवार, 27 मई 2009

फिर से जी लूंगी . . .

मन ही मन मैं,

तेरा नाप लेकर,

बनाती रही तेरे,

तन के कपड़े  

नहीं ये छोटा होगा,

नहीं ये होगा बड़ा,

करती खुद से जाने

कितने झगड़े

तन के कपड़े . . . ।

 

तू गोरी होगी,

या सांवरी

मैं भी बावरी बन

सजाती रही गुडि़या पे

तेरे वो कपड़े

तन के कपड़े . . . ।

 

झलक तेरी आंखों में

लेकर सोती तो,

ख्‍वाबों में फिरती

तुझको पकड़े-पकड़े

तन के कपड़े . . . ।

 

मैं अपना बचपन

फिर से जी लूंगी

तू आ जाएगी तो

मिट जाएंगे सारे झगड़े

तन के कपड़े . . . ।

11 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर कल्पना। वाह। कहते हैं कि-

    तमाम घर की फिजा को बदलता रहता है।
    वो एक खिलौना जो आँगन में चलता रहता है।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. wah bahut hee sundar rachnaa, saral shabdon mein aapne bahut sundar bhaav utpann kar liye....

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह ये गुडियाँ के कपडे का बयां इतना निराला है........ तो वो आई तो उसका बयां कैसा होगा.....
    बहुत सुन्दर........

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  4. बहुत ही प्यारी कविता है। भावनाओं को उड़ेलती हुई। सचमुच बहुत सुंदर रचना। (कृपया वर्ड वेरीफिकेशन हटाएं-धन्यवाद)

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  5. मैं अपना बचपन
    फिर से जी लूंगी
    तू आ जाएगी तो
    मिट जाएंगे सारे झगड़े
    तन के कपड़े . . .

    वाह...............गहरी भावनाओं की अभिव्यक्ति है इस रचना में..........छोटे छोटे सपनो में बुनती हुयी तन के कपडे वास्तव में कपडे नहीं पूरी जिंदगी का फलसफा है.......... लाजवाब

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  6. sach me co aa jaree hai to maa sab kuchh bhool jati hai hai bhavmay kavita badhai

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  7. कमाल के कोमल भाव हैं आपके.
    आपकी इस सर्वाधिक लोकप्रिय
    प्रस्तुति को पढकर मन मग्न हो गया है सदा जी.

    आभार.

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....