सोमवार, 20 सितंबर 2010

श्रृंगार हो जाती .....


बदल जाती हर सुबह
एक कली की जिंदगी,
वह खिलकर फूल बन जाती
कभी वह चढ़ा दी जाती
किसी देवता के चरणों में
कभी चढ़ा दी जाती
अर्थी पे
कहीं उसकी खुश्‍बू से
महक उठता
घर का कोना-कोना
कभी किसी के बालों का
श्रृंगार हो जाती
इक सुबह‍ आती ऐसी भी
उतार दी जाती
देवता के चरणों से
बिखर जाती किसी के जुल्‍फों में
सजी उसकी पंखड़ी
और अंत हो जाता उसका
सदा के लिए !!

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

दौर मुश्किल है .....







नहीं लगता कोई अपना आजकल,

सबका मन हुआ अपना आजकल ।

पराये हो जाते हैं मां-बाप भी अब,

घर में दुल्‍हन के आने से आजकल ।

जन्‍म दिया, पालन पोषण किया ये,

सब करते हैं कहते बच्‍चे आजकल ।

सब कुछ करो आप, मन की करने दो,

बस उम्‍मीद मत करो कहते आजकल ।

रूसवाई से डरे जमाने में कुछ न कहा,

हर घर के हालात एक से हैं आजकल ।

बुजुर्गों की नसीहतें बुरी लगती हैं जबसे,

कुछ भी कहने से डरते हैं यह आजकल ।

दौर मुश्किल है, हर रिश्‍तें में फासला है,

काम से वक्‍त नहीं मिलता बस आजकल ।

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....