गुरुवार, 30 अगस्त 2012

जिंदगी ...

दिल के धड़कने को जो तुम
जिंदगी कहते हो तो
मुझे एतराज़ है
तुम्‍हारे इस ख्‍याल से
धड़कनों से तो सिर्फ यह
नश्‍वर शरीर ही जिंदा रहता है
जिंदगी तो हर वक्‍़त को
जीने का नाम है
...
इस जीने के क्रम में
कुछ किश्‍तों की अदाएगी जैसा हाल होता है
जिंदगी का
टुकड़ो में बँटी यह जिंदगी
कभी परिश्रम करती है कभी प्रयास करती है
तब जाकर कहीं इन दो आंखों में
उम्‍मीद के कुछ क्षण नज़र आते हैं तो कभी
रह जाती है सिर्फ़ हिस्‍से में वितृष्‍णा
जिंदगी इक पहेली भी है तो कभी सहेली भी
बिल्‍कुल सीधी सरल तो कभी एक उलझन
जो सुलझाये न सुलझे
....
एक सिलसिला जन्‍म से मृत्‍यु तक
अनवरत् चलता रहता है
एक का पालन -पोषण
हर दूसरी जिंदगी का कर्तव्‍य
बन जाना ही नहीं
बल्कि हर एक की नज़र में
इसकी परिभाषाएं अलग हैं
कभी एक चुनौती लगती है
तो कभी जैसे कोई जंग हो
जिसे हर हाल में लड़ना ही है
...
कभी जिंदगी बहती नदिया सी
तो कभी ठहरा हुआ पानी
जीत उसकी होती है हरदम
जिसने हार कभी न मानी
....

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

संकल्‍प शक्ति बड़ी है ...

तुम्‍हें पता है
ये मन्‍नतों के धागे कितने विश्‍वास से
संकल्‍प की गठान बांधकर
निकलते हैं अंजान यात्रा पर
कभी पल भर तो कभी दिन महीनों के साथ
वर्षों की कड़ी तपस्‍या
मन्‍नतों के धागे जिद्दी होते हैं
यूँ ही नहीं श्री हरि का मन पसीज़ता
यूँ ही नहीं किसी की खाली झोली में
डाल देते हैं मुरादों के फूल
...
आस्‍था की कसौटी पर
परखे जाने के लिए
ये परवाह नहीं करते बिल्‍कुल भी खुद की
इन्‍हें तो बस समर्पण आता है
दुआओं में बँधना आता है
तभी तो मंदिर के बाहर
वो पेड़ है न आस्‍था का
हॉं आस्‍था ही तो जो श्री हरि के दर्शन पश्‍चात्
बॉंध जाते हैं भक्‍त पूरी श्रद्धा के साथ
उस की शाखाओं में बस तभी से
वह बेपरवाह है
तपती धूप से, मूसलाधार बारिश से
बस अपने बँधन का मान रखते हुए
बँधे रहना है उसे तो  तब तक
जब तक ईश्‍वर की हथेलियों में
उसकी मुराद पूरी होने का
प्रण न करवा ले
...
श्री हरि भी
उसकी इस निष्‍ठा का मान रखते हैं
बँधन मुक्‍त करने के लिए उसे
अपने भक्‍त की आन रखते हैं
भक्‍त और भगवान के बीच की
यह बड़ी ही सशक्‍त कड़ी है
मन्‍नतों के धागे में
संकल्‍प शक्ति बड़ी है ...

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

जहां निर्वाण होता हो मासूमियत का !!!


















कुछ शब्‍दों के अर्थ
अनर्थ होने के भय से
जिभ्‍या पर आने से कतराते हैं
...
कुछ शब्‍द सिर्फ़ श्रापित होते हैं
जो औरों की जिन्‍दगी में
आ जाते हैं अभिशाप़ बनकर
दे जाते  हैं एक संताप मन में
अंजानी पीड़ा लिए
कोरों में छलकते आंसू
अपना खारापन देकर छीन लेते हैं
मिठास होठों की 
...
मैं हर क्षण को ज़ीने के लिए
मन मुताबिक
शब्‍दों के औज़ार लिए रहता हूँ,
काट देता हूँ संवेदनाओं को जब भी मुझे वो
भावनाओं में बहाती हैं
पूछता हूँ अपने आप से
खुद का वो ठिकाना
जहां निर्वाण होता हो मा़सूमिय़त का
परखा नहीं जाता हो जिसे
वक्‍़त बे़वक्‍़त कसौटियों पर !!!

शनिवार, 18 अगस्त 2012

चलना तो तुम्‍हें ही होगा मुझे लेकर ....















ख्‍वा़हिशों के इस दौर में
कुछ ख्‍वाहिशों को जिंदा रखना जरूरी है
वर्ना जीने की वजह नहीं रहती
....
कुछ ख्‍वाहिशों को जिंदा रखने के लिए
जरूरत पड़ती है थपकियों की
कुछ ख्‍वा़हिशें बहुत मासू़म होती हैं
उन्‍हें नहीं आता ख्‍वा़हिशों की
इस भीड़ में आगे बढ़ना
वे चुपचाप सिमट जाती आकर
जब भी मेरे आगोश में
कुछ ख्‍वाहिशों को जब ठोकर लगती
वो खो देती अपना हौसला
तब मुझे उन्‍हें दिखाना होता
दूर क्षितिज़ पर बादलो में गु़म चांद को
कभी चांद के छिपने की वज़ह
बतानी होती तो कभी
सितारों के आगे की दुनिया
सितारों का टूटना और लोगों की
मन्‍नतों को पूरा करना
...
तभी एक मासूम़ सी ख्‍वा़हिश उचककर कह उठी
क्‍या हम सच में पूरे कर सकते हैं
किसी के ख्‍वा़ब
मैं मुस्‍कराती उसकी मासूमियत पर
और कहती बिल्‍कुल
तुम बस विश्‍वास की उंगली मत छोड़ना
उसने कसकर मेरी उंगली थाम ली
मैं हैरान होकर बोली मैने तो विश्‍वास कहा था
उसने भोलेपन से कहा
चलना तो तुम्‍हें ही होगा मुझे लेकर
... 
(इस चलने के साथ ही आज 300 पोस्‍ट पूरी हुईं सदा की )





गुरुवार, 16 अगस्त 2012

रूह तक उतर जाती हूँ ... !!!















जब भी कभी मैं उम्‍मीद को तलाशती
उसके आकार का
अस्तित्‍व खंगालती
तो पाती निराकार ही उसे
आखि़र उसका राज़ छिपा कहां है
...
उम्‍मीद के टूटने पर बस
यही देखा है
आहत मन, निरूत्‍साहित सा होकर
खुद को नाकामयाब पाता
सारा जीवन दर्शन छोटा हो जाता
हम खो बैठते अपना ही अस्तित्‍व
...
मेरे इन सवालों पर  उम्‍मीद मुस्‍कराती
झाँकती मेरी आंखों में गहराई से
कहती तुम बस हौसले से मुझे देखो
मैं तुम्‍हें हर बार
एक नये रंग में दिखाई दूँगी
मैंने कभी हारना सीखा ही नहीं
ना ही घबराना उसने वो सब कुछ पाया है
जिसने मुझे हौसले से अपनाया है
...
मैं भाग्‍य की लकीरों की तरह
तुम्‍हें हथेलियों में नहीं मिलूँगी
ना ही तुम पाओगे मुझे
जन्‍म कुण्‍डली के किसी चक्र में
मैं तो बस आंखों में मिलती हूँ
हौसले से पनपती हूँ
दिल में घर बना लेती हूँ
और रूह तक उतर जाती हूँ
बिना किसी से कुछ कहे
साकार होने के लिए ... !!!








मंगलवार, 14 अगस्त 2012

आजा़दी का ज़श्‍न कुछ इस तरह से हमें मनाना है ...















आज़ादी का ज़श्‍न कुछ इस तरह से हमें मनाना है,
रोता हो  बच्‍चा जो उसे खिलखिला कर हँसाना है ।

उसकी मुस्‍कराहटों  में बहते आंसुओं को पोछकर,
शहीदों की गौरवगाथा उन्‍हें आज फिर से बताना है ।

कुर्बानियों पे जिनकी नाज़ करता है तिरंगा आज भी,
ऐसे बलिदानियों की याद में उसे झूम के लहराना है ।

सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा है गीत वही जिसे,
लिखा है इकबाल ने बच्‍चे - बच्‍चे को वाकि़फ़ कराना है ।

मंदिर की घंटी तो कभी मस्जिद की अजा़न है तिरंगा ये,
जय हिन्‍द के घोष में सदा इसका सम्‍मान ही सिखाना है ।

सोमवार, 13 अगस्त 2012

नज़रे चुरा मत लेना कभी ....

दिखाए कोई ख्‍वाब देख लो देखने से बुरा हुआ है कभी
बस उन ख्‍वाबों को तुम आंखों में बसा मत लेना कभी ।

कोई ग़र कहे तुम्‍हें बुरा तो कह लेने दो उसे शौक़ से,
बस उन बुरी बातों को दिल से लगा मत लेना कभी ।

कोई तुम्‍हारे रास्‍ते में बनकर आ जाये अड़चन कभी,
चलते रहना घबराकर रास्‍ता बदल मत लेना कभी ।

दुश्‍मन को दोस्‍त न बना सको तो कोई बात नहीं पर,
दोस्‍त को दुश्‍मन तुम भूले से बना मत लेना कभी  ।

अच्‍छाईयों में 'सदा' रब़ बसता है ऐसा सुना है बुजुर्गों से,
इन्‍हें अपना न सको गर तो नज़रे चुरा मत लेना कभी ।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

हालातों के बीच अपनी जिंदादिली ...

दम तोड़ते हुए उन ख्‍वाबों को तुमने दफ़ना तो दिया होगा,
दफ़न करके फिर उनको सर अपना झुका तो दिया होगा ।

कोशिशों का चऱाग हवाओं की जिद में भी जल रहा था जो,
हवाओं की जिद़ से तुमने उसे वाकि़फ करा तो दिया होगा ।

झुक जाना कभी किसी की खुशी के लिए गुनाह तो नहीं है,
जीने का ये अनूठा सबब तुमने उसे बतला तो दिया होगा ।

कभी हालात कभी वक्‍़त की समझाइश ने मुझे जिंदा रखा,
हालातों के बीच अपनी जिंदादिली को बतला तो दिया होगा ।

सौदेबाज़ी का हुऩर आता नहीं सीखने की कोशिश में चला हूँ,
घर से बेसब़ब ही 'सदा' ये तुमने उसे बतला तो दिया होगा ।

सोमवार, 6 अगस्त 2012

चुटकी का बजना सार्थक होता है !!!

नियमों में बंधकर
चलते - चलते मन ऊब सा गया है
खुद को जैसे मैं समझने लगा हूँ
लकीर का फ़कीर 
उसी क्रम ... में चलते - चलते
आज सारे नियमों को तोड़
सारे कायदों को छोड़
मन के फ़ायदे का सौदा करने निकला हूँ
...
जिन्‍दगी की किताब से मैने
समझौते का पन्‍ना फाड़कर बना दिया है
महज़ उसे कागज़ की नाव
जहां पानी होगा
बह निकलेगी वह नाव
और उसके साथ होगा मुस्‍कराता बचपन
...
तुम्‍हारी आदर्शवादी बातों में
कभी - कभी जलने की बू भी होती थी
चु‍टकियाँ बजाकर काम कराने का ढंग
अच्‍छा है ... पर
वह भी हर एक को नहीं आता
ना ही सबके काम पूरे हो पाते हैं
गौर करना बजती चुटकी के साथ
दूसरा हाथ तुम्‍हें उसकी पीठ पर भी रखना होता है
तभी चुटकी का बजना सार्थक होता है !!!
....





शनिवार, 4 अगस्त 2012

दोस्‍त के इन शब्‍दों में .....













दोस्‍त .. जब कहता है
मेरे रहते तुम्‍हारा कोई कुछ नहीं कर पाएगा ...
टूटती हुई उम्‍मीद छूटता हुआ हौसला
मानो वापस लौट आता है
दोस्‍त के इन शब्‍दों में
मन का कोई कोना दोस्‍ती के इस ज़ज्‍बे पर
अपना सब कुछ कुर्बान करना चाहता है
एक कोई होता है जो बहुत खास होता है
कितनी भी दूर हो वो
सदा दिल के पास होता है
....
भीड़ में एक अलग चेहरा
जो सिर्फ तुम्‍हारी परवाह करता है
डगमगाते हैं जब भी कदम
वह आगे बढ़कर सम्‍हाल लेता है
ये मेरे साथ ही नहीं
आप सबके साथ होता है
दोस्‍ती पर जिनको दिल से विश्‍वास होता है
उनका दोस्‍त हमेशा उनके पास होता है
...

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

हिसाब मांगने लगो खुद से !!!

जिन्‍दगी की किताब को
जरा आराम से पढ़ो तो इसके
हर पृष्‍ठ के हर शब्‍द का भाव तुम्‍हें
समझ आ जाएगा
मुमकिन है कुछ अंजान शब्‍द होंगे
जिनके मायनो से तुम अनभिज्ञ होगे
तो क्‍या हुआ हर कोई होता है
पर सीखने के इस क्रम में यह मत भूलो
जो  सीखता है ...समझता है ...उसे
व्‍याकुल नहीं होना होता
फिर परिस्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल
क्‍या फ़र्क पड़ता है
...
माना कि आडम्‍बर की दुनिया है
तुम आडम्‍बर में मत पड़ो
तुम्‍हारा व्‍यक्तित्‍व हर बात पर
खरा सोने से दमकता है
तपोगे और निखरोगे स्‍वीकारते हो
जो इस सत्‍य को 
तो फिर नकार दो हर बात को
अग्नि की दाहकता में तप कर
कुंदन बन जाओगे जिस दिन
सब की आंखे सिकुड़ जाएंगी
तुम अपनी जगमगाहट से
सबकी बोलती बंद कर दोगे
...
यह तुम्‍हारे आत्‍ममंथन का समय है
करो .. लेकिन आत्‍मा को
क्षत-विक्षत मत करो  इस क़दर की
वह स्‍वयं अपने वज़ूद का तिरस्‍कार  करने लगे
इसलिए तो नहीं  तुमने
अपनी अभिलाषाओं का हवन किया  था
कि कोई लगाकर अपने माथे पर तिलक उसका
क्रांति का बिगुल बजा जाए
और तुम मौन साधे अपनी आत्‍मा के
हर बिखरे हुए ज़र्रे का हिसाब मांगने लगो खुद से  !!!

बुधवार, 1 अगस्त 2012

रेश्‍म की डोर ....

एक बचपन मन के आंगन में
उतरा खुशियों भरा
त्‍योहार 'राखी' का मनाने को
परम्‍पराओं की थाली में
आस्‍था का दीप जलाकर
रिश्‍तो की डोर को सहेजा
भावनाओं की मिठास से
...
स्‍नेह का तिलक लगाकर
दुआओं के अक्षत  डाल
बहना ने कच्‍चे धागे से बांधा
रिश्‍तों के इस मजबूत बंधन को
वीर की कलाई पर
मुस्‍कान सजी  नयन भीगे हैं फिर भी
उस भाई के लिए 
बैठा है जो परदेस में कहता
मुझे पता है तुम ने
भेज दिया है मेरे लिए
लिफाफे में रख कितने दिन पहले से
उस रेश्‍म की डोर को
बांध लिया है मैने भी उसी स्‍नेह से
जैसे तुम बांधती हो
फिर भी मेरा मन  मीलों दूर का सफ़र कर
पहुँच ही गया है घर की दहलीज़ पर
जहां मां के हाथ से बने पकवानों की खुश्‍बू  है
तुम्‍हारा उपहार को लेकर चहकना है
बाबा का मुस्‍कराना है
इन पलों का खजाना बड़ा अनमोल है
दूर होकर भी पहुँच गया हूँ अपनों के पास
इस रेश्‍म की डोर के सहारे ही सही
आज के दिन  हर बहन दूर होकर भी
मन से रहती है सदा हर भाई के पास
...

ब्लॉग आर्काइव

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....