गुरुवार, 2 मई 2019

मैं तृष्णा !!


मैं संग्रहित करता रहा
जीवन पर्यन्त
द्रव्य रिश्ते नाते
तेरे मेरे
सम्बन्ध अनगिनत
नहीं एकत्रित करने का
ध्यान गया
परहित,श्रद्धा, भक्ति
विनम्रता, आस्था, करुणा
में से कुछ एक भी
जो साथ रहना था
उसे छोड़ दिया
जो यही छूटना था
उसकी पोटली में
लगाता रहा गाँठ
कुछ रह ना जाये बाकी !!!
...
मैं तृष्णा की रौ में
जब भरता अँजुरी भर रेत
कंठ सिसक उठता
प्यासे नयनों में विरक्तता
बस एक आह् लिये
मन ही मन
दबाता रहता
उठते हुए ग़ुबार को !!!

12 टिप्‍पणियां:

  1. व्वाहहहहह
    बेहतरीन...
    सादर नमन...

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह बहुत कोमल और सुंदर भाव रचना

    जवाब देंहटाएं
  3. जी नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ मई २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन रचना आदरणीय दी
    सादर

    जवाब देंहटाएं

  5. मैं तृष्णा की रौ में
    जब भरता अँजुरी भर रेत...
    गहन सृजन ! जीवनभर अंजुरी में रेत ही तो भरते रहते हैं हम सब....

    जवाब देंहटाएं
  6. गंभीर चिन्तन के साथ बेहतरीन सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  7. मैं तृष्णा की रौ में जब भरता अँजुरी भर रेत कंठ सिसक उठता
    संवेदनशील पंक्तियाँ...

    जवाब देंहटाएं

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....