मैं संग्रहित करता रहा
जीवन पर्यन्त
द्रव्य रिश्ते नाते
तेरे मेरे
सम्बन्ध अनगिनत
नहीं एकत्रित करने का
ध्यान गया
परहित,श्रद्धा, भक्ति
विनम्रता, आस्था, करुणा
में से कुछ एक भी
जो साथ रहना था
उसे छोड़ दिया
जो यही छूटना था
उसकी पोटली में
लगाता रहा गाँठ
कुछ रह ना जाये बाकी !!!
...
मैं तृष्णा की रौ में
जब भरता अँजुरी भर रेत
कंठ सिसक उठता
प्यासे नयनों में विरक्तता
बस एक आह् लिये
मन ही मन
दबाता रहता
उठते हुए ग़ुबार को !!!
व्वाहहहहह
जवाब देंहटाएंबेहतरीन...
सादर नमन...
वाह बहुत कोमल और सुंदर भाव रचना
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ मई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना आदरणीय दी
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन..... ,सादर
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंमैं तृष्णा की रौ में
जब भरता अँजुरी भर रेत...
गहन सृजन ! जीवनभर अंजुरी में रेत ही तो भरते रहते हैं हम सब....
आभार आप सभी का ...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब...
गंभीर चिन्तन के साथ बेहतरीन सृजन ।
जवाब देंहटाएंमैं तृष्णा की रौ में जब भरता अँजुरी भर रेत कंठ सिसक उठता
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील पंक्तियाँ...