कोई कैसे जिन्दगी को
अहसासों से मुक्त
और बंधनों से आजाद कर
स्वच्छंद विचरण
करने के लिए
छोड़ सकता है भूमंडल पर
जन्म से ही
जुड़ी होती आकांक्षाएं अनगिनत
संवेदनाओं से लिपटा
भावनाओं में पला
मां के आंचल से निकलकर
पिता के स्नेह से
पल्लवित हो विचारों की
पाठशाला में अध्ययन कर
शिक्षा रूपी ओज से संस्कारों का
पोषण करते हुए क्रमश:
एक लक्ष्य देता है जीवन को
...
पेड़ ये मात्र पेड़ या पौधे नहीं होते
इनमें भी जीवन होता है
बीज से निकलकर
माटी में पल्लवित होकर
हवा और पानी पाकर इनका
विस्तार होता है
यह भी संवेदनशील होते है
सर्दी और गर्मी
स्पर्श का ज्ञान लिए
हमारी बाते सुनते भी हैं
और फल देकर अपने जीवन को
सार्थक भी करते हैं
...
सदानीरा जल की देवी
जिनसे जीवन है मानव का
बहते रहने में ही
इसका सार है बहाव लिए हुए
यह अपनी निरंतरता
कायम रखती है
कल कल कर बहता निर्मल पानी
जिसने हार कभी न मानी
...
मानव मन ही होता जाने क्यूं अभिमानी
जो यह सब भूल जाता है
अपनी 'मैं' के चलते ही
यह मन बारी-बारी से
जीवन रूपी आग की भट्ठी में
परखने के लिए
तपाया जाता है परिमाणत:
कभी वह निखर कर कुंदन हो जाता है
कभी जलकर राख ...!!!
अहसासों से मुक्त
और बंधनों से आजाद कर
स्वच्छंद विचरण
करने के लिए
छोड़ सकता है भूमंडल पर
जन्म से ही
जुड़ी होती आकांक्षाएं अनगिनत
संवेदनाओं से लिपटा
भावनाओं में पला
मां के आंचल से निकलकर
पिता के स्नेह से
पल्लवित हो विचारों की
पाठशाला में अध्ययन कर
शिक्षा रूपी ओज से संस्कारों का
पोषण करते हुए क्रमश:
एक लक्ष्य देता है जीवन को
...
पेड़ ये मात्र पेड़ या पौधे नहीं होते
इनमें भी जीवन होता है
बीज से निकलकर
माटी में पल्लवित होकर
हवा और पानी पाकर इनका
विस्तार होता है
यह भी संवेदनशील होते है
सर्दी और गर्मी
स्पर्श का ज्ञान लिए
हमारी बाते सुनते भी हैं
और फल देकर अपने जीवन को
सार्थक भी करते हैं
...
सदानीरा जल की देवी
जिनसे जीवन है मानव का
बहते रहने में ही
इसका सार है बहाव लिए हुए
यह अपनी निरंतरता
कायम रखती है
कल कल कर बहता निर्मल पानी
जिसने हार कभी न मानी
...
मानव मन ही होता जाने क्यूं अभिमानी
जो यह सब भूल जाता है
अपनी 'मैं' के चलते ही
यह मन बारी-बारी से
जीवन रूपी आग की भट्ठी में
परखने के लिए
तपाया जाता है परिमाणत:
कभी वह निखर कर कुंदन हो जाता है
कभी जलकर राख ...!!!
मानव मन ही होता जाने क्यूं अभिमानी
जवाब देंहटाएंजो यह सब भूल जाता है
अपनी 'मैं' के चलते ही
यह मन बारी-बारी से
जीवन रूपी आग की भट्ठी में
परखने के लिए
तपाया जाता है परिमाणत:
कभी वह निखर कर कुंदन हो जाता है
कभी जलकर राख ...!!!
बहुत सुंदर उपमाओं से सार्थक तथ्य को कहा है ...सुंदर अभिव्यक्ति
सच में ये तो खुद ही पर है कि कुंदन बनना है या राख... अच्छी कविता...
जवाब देंहटाएं************
प्यार एक सफ़र है, और सफ़र चलता रहता है...
जवाब देंहटाएंअपनी 'मैं' के चलते ही
यह मन बारी-बारी से
जीवन रूपी आग की भट्ठी में
परखने के लिए
तपाया जाता है परिमाणत:
कभी वह निखर कर कुंदन हो जाता है
कभी जलकर राख ...!!!
अत्यंत सुन्दर उपमाओं एवं बिम्बो से सजी भाव पूर्ण आध्यात्मिक प्रस्तुति......
सादर !!!
जीवन रूपी आग की भट्ठी में
जवाब देंहटाएंपरखने के लिए
तपाया जाता है परिमाणत:
कभी वह निखर कर कुंदन हो जाता है
कभी जलकर राख,,,,बहुत अच्छे भावों की सार्थक रचना,,,,,
बेहतरीन भावों में शब्दों को सजाया है सदा जी आपने. बेहतरीन रचना......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (22-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
अभिमानी या स्वाभिमानी ...इस क्यों का जवाब ही तो ढूंढते है!
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन है कविता में !
बहुत सुन्दर भाव सदा.....
जवाब देंहटाएंगहन अर्थ लिए रचना..
सस्नेह
अनु
.
जवाब देंहटाएंमानव मन ही होता जाने क्यूं अभिमानी
जो यह सब भूल जाता है
अपनी 'मैं' के चलते ही
यह मन बारी-बारी से
जीवन रूपी आग की भट्ठी में
परखने के लिए
तपाया जाता है परिमाणत:
कभी वह निखर कर कुंदन हो जाता है
कभी जलकर राख ...!!!
सब कुछ समेट लिया आपने रिश्तों में
रिश्तों की मोहक दुनिया की सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंरिश्तों के हर पहलू को समेटे
जवाब देंहटाएंगहरे भावों और संवेदनाओं को
व्यक्त करती बहुत ही सुन्दर
अति उत्तम रचना...
:-)
बेहद सुन्दर और भावपूर्ण रचना |मन को छू गयी
जवाब देंहटाएंसदा जी रचना में जीवन की तरह बहुत गहराई है -स्पंदन है शब्दों में भी भाव में भी पेड़ पौधों सा गति है नदिया के आवेग सी हाँ जीवन होता है बिना एहसास के भी ,सिर्फ साक्षी भाव रह जाता है वहां -बिना एहसास के जिए जा रहा हूँ ,इसलिए कि जब कभी एहसास लौटें ,खैरमकदम (स्वागत )कर सकूं .
जवाब देंहटाएं''मैं''और ''जीवन'' की सोच को बेहद संजीदगी से लिख दिया आपने
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...........मन को छू गयी
जवाब देंहटाएंगहन अर्थ लिए भावमयी सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंsundar rachna..
जवाब देंहटाएंअपनी 'मैं' ही में अब मैं समाया
जवाब देंहटाएंकब आदमी से बकरी अपने को बनाया
मैं मैं करता रहकर ये नहीं मैं जान पाया !
सार्थक अभिव्यक्ति। मेरे नए पोस्ट 'समय सरगम' पर आपका इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंकाश मनुष्य भी इन्ही की तरह सहज सरल होता .........
जवाब देंहटाएंGreat lines.. you deserve a dinner. Keep writing Sada a lot to learn from you..
जवाब देंहटाएंThanks..
पूर्वनियत कार्यक्रम के अनुसार ही होता है हमारा जन्म।
जवाब देंहटाएंवाह...बहुत ही सुन्दर लगी पोस्ट।
जवाब देंहटाएंमानव मन ही होता जाने क्यूं अभिमानी
जवाब देंहटाएंजो यह सब भूल जाता है
अपनी 'मैं' के चलते ही
यह मन बारी-बारी से
जीवन रूपी आग की भट्ठी में
परखने के लिए
तपाया जाता है परिमाणत:
कभी वह निखर कर कुंदन हो जाता है
कभी जलकर राख ...!!!
....बहुत गहन और सार्थक चिंतन....बहुत सुन्दर
प्रकृति देने का सुख भोगती है और मानव जीवन पाने और छिन जाने की स्थितियों को झेलता है. आखिर मन जो ठहरा उसके साथ. बहुत सुंदर कविता.
जवाब देंहटाएंहाँ हीरा भी कोयले का ही कार्बन का ही एक रूप है अपरूपता.एहम आदमी को कोयला बना देता है ओर उसका विसर्जन हीरा हैं दोनों कार्बन .एहम व्यक्ति को जड़ ही नहीं बीमार बना देता है .सभी मनो -रोगी इसका इस्तेमाल डिफेन्स मिकेनिज्म के रूप में करते हैं .कोई चीज़ उनसे टूट जायेगी तो गलती नहीं मानेंगे ,इलज़ाम लगायेंगें -"चीज़ को रखने का भी एक तरीका होता है ,ऐसे रखा जाता है .टूटनी ही थी वह तो ,मुझसे न टूटती तो किसी और से टूटती . "
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंसबने ही मैं मैं कहा, पूछा "मैं" है कौन
जवाब देंहटाएंमैं का उत्तर ढूँढते , सबके सब हैं मौन ||
अहम और अभिमान को भुलाकर आगे बढ़ने का सच्चा सन्देश देती सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति !
कविता अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंबुशन अंकल कि बात से पूर्णतः सहमत हूँ। :)
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