मैंने नहीं सुनी परी कथा कोई
ना जादू का पिटारा था मेरे पास
ना ही कोई गुडि़या
जिसके साथ मैं खेलती
और बातें करती
अपनी सहेलियों की
कभी रचाती ब्याह गुडि़या का
सपने सजाती उसकी पलकों में
मेरी मुट्ठियों में
काम से बचे वक़्त में होते थे
रंगीन कँचे
अकेले ही घर के कच्चे आंगन में
फैलाती उन्हें निशाना लगाती
कभी कागज की पतंग भी बनाती
उसे उड़ाती जब भी
खुद को भी उसी के जैसा उड़ता पाती
मेरी मुस्कान देख मां कहती
गिर मत जाना
छत नहीं थी तो हवा भी कम लगती
तब मैं लकड़ी के स्टूल पर खड़ी होकर
पतंग उड़ाया करती :)
...
वक़्त बदला सपने बदले
लेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
किसी बच्चे को रंगीन कँचे
या उड़ती पतंग की
डोर थामें देखती हूँ जब भी
तो खुद को उसी कच्चे आंगन में
खड़ा पाती हूँ
...
वाह सदा जी सुन्दर अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंबड़ी प्रभावी रचना..
जवाब देंहटाएंबचपन की यादे भुलाए नही भूलतीं।
जवाब देंहटाएंsuhaane din bachapan ke
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और सुन्दर हमेशा की तरह.......हमारे ब्लॉग जज़्बात......दिल से दिल तक की नई पोस्ट आपके ज़िक्र से रोशन है.....वक़्त मिले तो ज़रूर नज़रे इनायत फरमाएं -
जवाब देंहटाएंhttp://jazbaattheemotions.blogspot.in/2012/08/10-3-100.html
सुन्दर भाव लिए
जवाब देंहटाएंप्यारी रचना.....
:-)
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत अहसासों को उकेरती है आप कविता में. सुन्दर बालमन समझाया बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंप्यारे भाव..
सस्नेह
अनु
सपने कभी नहीं मरते , जब तब ठिठक जाते हैं और सब हरा हो जाता है
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया
जवाब देंहटाएंक्या कहने
sapne jeevant rahen:)
जवाब देंहटाएंअहसासों की प्रभावी अभिव्यक्ति,,,,बधाई सदा जी,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST,परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,
कभी कही बचपन आँखों के सामने घुमने लगता है और हम भी बच्चे बन जाते है
जवाब देंहटाएंवक़्त बदला सपने बदले
जवाब देंहटाएंलेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
नहीं बदलता .... चाह कर भी बचपन कि आदतें नहीं बदलती !!
वक़्त बदला सपने बदले
जवाब देंहटाएंलेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
किसी बच्चे को रंगीन कँचे
या उड़ती पतंग की
डोर थामें देखती हूँ जब भी
तो खुद को उसी कच्चे आंगन में
खड़ा पाती हूँ
sunder saral shabdon me gahre bhav
rachana
मनमोहक... भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंएक लम्बे अंतराल के बाद कृपया इसे भी देखें-
जमाने के नख़रे उठाया करो
वक़्त बदला सपने बदले
जवाब देंहटाएंलेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
किसी बच्चे को रंगीन कँचे
या उड़ती पतंग की
डोर थामें देखती हूँ जब भी
तो खुद को उसी कच्चे आंगन में
खड़ा पाती हूँ
बहुत बेहतरीन जज्बा.
सबको बचपन की यादें इसी तरह आती रहती है, सार्थक रचना, आभार।
जवाब देंहटाएंसच है इंसान बचपन को करीब देखता है तो उसी में लौट जाना चाहता है ....
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना है ...
बचपन को जी लिया इस रचना में ॥सुंदर
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने । भरापूरा हो या अभावग्रस्त, बचपन सदा हमारे साथ चलता है ।सुन्दर कविता ।
जवाब देंहटाएंवक़्त बदला सपने बदले
जवाब देंहटाएंलेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
किसी बच्चे को रंगीन कँचे
या उड़ती पतंग की
डोर थामें देखती हूँ जब भी
तो खुद को उसी कच्चे आंगन में
खड़ा पाती हूँ
मैं भी अपने आप को साथ खड़ा पाता हूँ
भाव प्रवण कविता। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है।
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जवाब देंहटाएंकुछ यादें ज़हन में ऐसे वाबस्ता हो जाती हैं जैसे किसी चित्र में बक्ग्राउन्ड ...बहुत सुन्दर
समय के साथ-साथ कितना कुछ बदल जाता है ...गुजरे दिन अक्सर यूँ ही जाने कितने अवसरों पर हमारे सामने आ खड़े होते हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति
बचपन के अहसासों का पुनर्जन्म होता रहता है. बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत सदा जी...........
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