मंगलवार, 24 नवंबर 2015

जाने कहाँ ?

गुम जाने की उसकी बुरी आदत थी,
या फिर 
मेरे रखने का सलीका ही सही न था,
चश्‍मा दूर का
अक्‍सर पास की चीजें पढ़ते वक्‍़त
नज़र से हटा देती थी
एक पल की देरी बिना वह
हो जाता था मेरी नज़रों से ओझल
कितनी बार नाम लेती उसका
जाने कहाँ गया ?
दिखता भी नहीं था वह दूर जो हो जाता था
उसको ढूँढते वक्‍त
बरबस एक ख्‍याल आता था
काश मोबाइल की तरह इसकी भी कोई
प्‍यारी सी रिंगटोन होती J
तो यूँ ढूँढने की ज़हमत तो नहीं होती !
....
इस मुई चाबी को भी
हथेलियों में दबे रहने की जैसे आदत हो,
पर कब तक ??
कभी तो उसे इधर-उधर रखना ही होता न
मन ही मन बल खाती ये भी
नज़र बची नहीं कि खामोशी की
ऐसी चादर तानती
सारे तालों की हो जाती बोलती बंद
और मच जाती सारे घर में खलबली
मची हड़बड़ाहट के बीच
एक कोफ़्त भी होती
काश इसे टांग दिया होता किसी कीले पर
मेरी ही आदत खराब है या फिर
इसे ही चुप्‍पी साधने में मज़ा आता है!!!!



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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....