गुरुवार, 30 जनवरी 2014

ख्‍वाहिशें झाँकती हैं बन के ख्‍व़ाब !!!!!

अंज़ाम की परवाह
बिना किये जब
जिंदगी के साथ चलता है कोई 
कदम से कदम मिलाकर तो 
जीने का सलीक़ा आ जाता है
...
जिंदगी चलती है
मुस्‍कराहटों के साथ जब भी
तो वक्‍़त की दौड़ तेज़ हो जाती है
हसरतें मचलती हैं दबे पाँव
ख्‍वाहिशें झाँकती हैं बन के ख्‍व़ाब
बँद पलकों में अक्‍़सर
तो फि़र सोचना कैसा ?
क्‍या होगा, क्‍यूँकर होगा ???
....
खिलखिलाहट को आज
बन के हँसी गूंज जाने दो
खामोशी के हर कोने में
उम्‍मीदों को दौड़ने दो
पूरे मनोयोग से
एक नई आशा के साथ
जहाँ ख्‍वाबों ने सीखा हो
सिर्फ साकार होना
आकार उनका कुछ भी हो
इस बात का हर फ़र्क मिटाकर !!!!!

बुधवार, 8 जनवरी 2014

उम्र के आखिरी पन्‍ने पर ....


लम्हा-लम्‍हा करीब आता काल,
शिथिल तन,
कुछ न कह पाने की विवशता
पलकों की कोरों से
बहती रही
सब पास थे चाहते औ’ ना चाहते हुये भी
पर दूर थी सबसे वो ‘गुड्डी’
जो बचपन में हर पल
झगड़ती थी, झिड़कती थी
उसकी जि़द देख
कितना डपटती थी उसे ‘बा’
उम्र के साथ-‍साथ
उसका झगड़ना स्‍नेह में बदल गया,
झिड़कना उसका कब
देखभाल में तब्‍दील हो गया
अस्‍सी की उम्र में ‘बा’
शिथिल हुई, अंतिम समय आया
उम्र के आखिरी पन्‍ने पर
जाने का समय द्वार पे दे रहा था दस्‍तक़
पर ‘बा’ बंद पलकों में उसका अक्‍स लिये
प्रतीक्षारत थीं, लड़ती रही अंतिम समय भी
काल से, ये क‍हते हुये
ज़रा ठहरो ! वो आती होगी
दूर रहत है न,
सांसे अटकतीं, उखड़ती, फिर चलने लगतीं
रात दस बजे वो आई,
पायल की रूनझुन कानों में पड़ते ही
बंद पलकें खुलीं
आँसुओं से भीगा चेहरा लिये,
’बा’ के सामने थी ‘गुड्डी’
उसकी कोमल हथेलियों का स्‍पर्श
मिलते ही, प्रतीक्षा की घडि़या समाप्‍त हुईं
द्वार पर फिर दस्‍तक़ हुई,
’बा’ अंतिम बेला में मुस्‍काई
तुम नहीं मानोगे ले चलो
मेरी गुड्डी आ गई
अब मैं चलती हूँ
पलकें खुली रह गईं,
जाते वक्‍़त भी उसका चेहरा
आँखों में, हथेलियों का स्‍पर्श अपने साथ ले
बिना कुछ कहे भी
कितना कुछ गईं थीं ‘बा’
....




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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....