गुरुवार, 30 जुलाई 2009
मेरा नया ब्लाग स़दविचार
बुधवार, 29 जुलाई 2009
साथ लेकर चलता था . . .
राख के ढेर पर वह यादों की
लकडि़या रखता रहा
कोई चिंगारी होगी
तो यह भी जल जाएगी
सुनेगी तो बिखर जाएगी
कुरेदना मेरी
फितरत ही नहीं
उठेगा धुंआ
तो चिंगारी
खुद-ब-खुद सामने,
आ ही जाएगी ।
(2)
मेहनत पे भरोसा था,
बहुत तभी तो,
हांथ की लकीरो पे
एतबार नहीं किया ।
साथ लेकर चलता था
अपने हौसला मैं हरदम,
कुछ कर गुजरने का,
तभी तो गैरों पे,
एतबार नहीं किया ।
सोमवार, 27 जुलाई 2009
छूट रहा आज मन का बंधन . . .
फनां हो जाएगा एक दिन ये माटी का खिलौना,
रूह तेरी बदल लेगी एक लिबास नये तन का ।
सिसक रहा है तन छूट रहा आज मन का बंधन,
टूट रहा धागा हर रिस्ते का अंत है इस तन का ।
मन जाने क्यों आज व्यथित है, भीगते नयन यों,
कांपते अधर कहने को कुछ बेकार हर जतन है ।
मिले मानुष का जीवन मिन्नतों से पाया ये तन है।
गंवाया हर क्षण सदा ना याद आया कि ये नश्वर तन है ।
गुरुवार, 23 जुलाई 2009
दो बूंद ...
दो बूंद जिन्दगी के
पोलियो की जंग में
प्रसारित यह विज्ञापन
महज एक विज्ञापन ही नहीं
दो बूंद
वास्तव में
ये सिर्फ जिन्दगी से कहीं
बढ़कर होते हैं
आपने कभी देखा है
बच्चों की मुस्कराहट को,
वो जब इसे पीने जाते हैं,
कितना उत्साह होता है
उनमें आज हम
दो बूंद पीने जाएंगे
भइया को भी ले जाएंगे
खुशी व्यक्त करती उनकी मुस्कान
इन दो बूंदों से उनके
कदमों में रहता सारा जहान
बुधवार, 22 जुलाई 2009
जादू कर देता ...
मुस्कान सजा लेता जब वह लब पर,
जाने क्या जादू कर देता वह सब पर ।
रोज नहीं मिल पाता था वह सबसे,
लेकिन जब भी मिलता था हंस कर ।
क्या मिल जाएगा अपनों से ही लड़ कर ।
बुलबुला पानी का यह जिन्दगानी है कुछ तो,
आपस में समझौता कर लिया करो हंस कर ।
हो जाती आसान सामना करो अगर डट कर ।
सोमवार, 20 जुलाई 2009
जाने क्यों . . .?
जाने क्यों वह,
आज स्कूल नहीं,
जाना चाहती,
पूछने पर बस,
उसका वही ठुनकना
हम स्कूल नहीं जाएंगे,
जाने क्यों
क्या बात है
मुझे अभी सोना है
रोज-रोज जल्दी
जगा देती हो
उठो ब्रश कर लो
तैयार हो जाओ
जल्दी दूध पी लो
रिक्शे वाला
आता होगा
मम्मा तुम रोज
एक ही बात बोलती हो
जाने क्यों
सब कुछ
एक ही सांस में
बोल गई गुड्डो
मैं हैरान सी
उसकी बड़ी-बड़ी
उनींदी आंखों में
शबनम की बूंदों से
आंसुओ को देख
विचलित हो गई
कहीं मैंने
इसका बचपन
इसके सपने
छीन तो नहीं लिए
शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
पहरे पे बैठी तबस्सुम ....
मैं हंस कर सह लूंगी तेरे दिये गम सारे,
छलक आए जो आंसू छुपा लूंगी वो सारे,
पहरे पे बैठी तबस्सुम कुछ इसतरह से,
कितने भी गम देकर देख नहीं हम हारे ।
होगा, मुहब्बत का जिसमें ना होंगे किनारे ।
टूट के बिखरा तो हांथ आयेंगे टुकड़े सारे ।
उड़ने का हौसला हो मन में जब तो कहां,
सोचता कोई नहीं सदा पर नही हैं हमारे ।
बुधवार, 15 जुलाई 2009
सब खुश होंगे ...
कोई फैसला
छोड़ दे
अगर तुम पर
एक हां का
एक न का
हां से
सब खुश होंगे
न से
सिर्फ तुम
क्या करोगे
हां
या फिर
न
से अपनी खुशी
लोगे खरीद ।
(2)
एक दिन ये काया
मिट्टी में
मिल जाएगी।
ये माया जग से
नेह की
छूट जाएगी ।
(3)
सारे सपने
अधूरे
सब के
नहीं रहते ।
सपने सब के
पूरे सच भी
नहीं होते ।
सोमवार, 13 जुलाई 2009
पत्ते दगा दे जाते हैं . . .
कहते हैं पेड़ को पत्ते दगा दे जाते हैं,
दर्दे जुदाई को ये दिल से लगा लेते हैं ।
डाली-डाली कहानी ये कह देते हैं ।
पतझड़ में टूटे पत्ते कहते ना रौदों,
पांव में सदा इनकी पेड़ सुन लेते हैं ।
तब तक हम इसके साये में रह लेते हैं ।
छूटा साथ टहनी का, वजूद पेड़ का खोया,
बहार के आने तक टूटा पत्ता कह लेते हैं ।
गुरुवार, 9 जुलाई 2009
मुस्कराई वफा . . .
दामन वफा का,
पकड़कर एक दिन,
बेवफाई ये बोली,
रिश्तों में बढ़ रहीं,
दूरियां,
आपस में तकरार,
मन में द्वेश है बस,
नहीं अब यहां,
तेरी जरूरत !
मुस्कराई वफा
बड़ी शान से
फिर भी जिंदा हूं,
मैं ईमान में,
झुकती नहीं,
डरती नहीं,
मरती नहीं,
पहचान अपनी,
खुद हूं जहान में !!
मंगलवार, 7 जुलाई 2009
कहीं कन्या न हो . . .
आकार लेने से पहले मेरे जहां जन्म लेना है मुझे,
क्यों एक दहशत सी हो जाती है कहीं कन्या न हो ।
मेरी मौत का सामान सजाते ये कहीं कन्या न हो ।
मेरे मन की बातें रह जाती मन में मेरा तो कोई अभी,
अस्तित्व ही नहीं फिर सोचा कैसे ये कहीं कन्या न हो ।
देवी का दर्जा भी दिया मुझे, खुद को कलंकित भी किया,
अन्त कर देते जन्म लेने से पहले कहीं ये कन्या न हो ।
भय है मेरा इतना इनको नाम मेरा आकार ना ले ले कहीं,
भय मुक्त होने को निष्प्राण करते मुझे कहीं ये कन्या न हो ।
सोमवार, 6 जुलाई 2009
फिजायें महकी . . .
शोख चंचल उसकी हर अदा,
ठहरी, सदा मैं खामोश रहा ।
उसकी हंसी से महफिल गूंजी,
मैं उसी में सदा खोता रहा ।
गेसूओं से टपकती बूंदे जब,
कभी मैं सदा नम होता रहा ।
फिजायें महकी उसके आने से,
मैं सदा उनमें ही गुम होता रहा ।
धड़कता ये दिल उसके ही नाम पर,
बता सदा साथ मेरे क्यों ये होता रहा ।
शनिवार, 4 जुलाई 2009
यादों को समेट के आंचल में . . .
जाने कब से तरसती थी निगाहे,
तेरे एक दीदार को हमनशी मेरे ।
रूखसत हुआ जब से दिया नहीं,
कोई संदेश कभी ये हमनशी मेरे ।
तेरे जाने के बाद घर में सूनेपन,
के सिवा कुछ नहीं हमनशी मेरे ।
ढक लेती हूं चेहरा हमनशी मेरे ।
छाया सदा साथ रही हमनशी मेरे ।
बुधवार, 1 जुलाई 2009
कायनात थी एक हुई . . .
इस इश्क में जुदाई,
क्यों तेरे मेरे बीच हुई ।
मिलाने को मुझे तुमसे कभी,
सारी कायनात थी एक हुई ।
ना बिछड़ने की कसम टूट गई ।
शिकवे न शिकायत कोई फिर,
जाने क्यों तू मुझसे रूठ गई ।
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- सदा
- मन को छू लें वो शब्द अच्छे लगते हैं, उन शब्दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....