बुधवार, 22 अप्रैल 2009

एक वृक्ष नया . . .

कहती नही है कभी भी,
टहनी अपने भार को,
इतराती है नजाकत से
पत्तो के संग लहराती,
वो हर पल मुस्काती,
ठंडी बयार से,
कहती नही है .....।
लचक जाती जब वह
फलो के भार से,
थोड़ा सकुचाती झुक जाती,
फिर सब के मनुहार से,
कहती नही है .....।
मन विचलित है,
भीगे नयन हैं,
धरा पर पड़ी
निर्जीव सी हो के

अलग वृक्ष से
कहती नही है .....।
विदाई की बेला
निकट आ गई
आघात तुम पे हो
इससे पहले मैं कुछ
कहने धरा पे आ गई
कहती नही है .....।
मेरा अंत तो ठीक है,
हो सके तो रोक दो
इस अन्याय को
मैंने तुमको इतना कुछ,
है दिया अब तुम लगा के
एक वृक्ष नया
मुझे न्याय दो
कहती नही है .....।

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....