शनिवार, 31 दिसंबर 2011

मिल कर करें अभिनन्‍दन ...2012 का













मैं भविष्‍य से वर्तमान बन,
तुम्‍हारी दहलीज़ पे
आ गया हूं
मेरी कांधे पे एक झोली है
विश्‍वास की
उसमें 365 दिन हैं
उसका पहला दिन
जब निकलेगा
तब मेरा नाम लेकर
सूर्य की किरणें
तुम्‍हारा अभिनन्‍दन करेंगी
तारीखें बदलेंगी
दिन नये आते जाएंगे
सपने तुम्‍हारी आंखों में
झिलमिलाएंगे हर आह्वान तुम्‍हारा
पूर्ण होगा तुम्‍हें बस
संकल्‍पों के मंत्रों को उच्‍चारित करना होगा
अडिग रहना  होगा तुम्‍हें
क्‍योंकि मेरा समय
सुनिश्चित है आने और जाने का
मैं ठहरता तो कभी भी नहीं
भागता रहता हूं
घड़ी की टिक-टिक के साथ
तुम्‍हें भी अपने कदमों की रफ्तार को
कुछ गति देनी होगी
तो आओ स्‍वागत गीत जो
तुम्‍हारे होठ़ों पर है
उसे गुनगुनाओ कुछ इस तरह
कि चारों दिशाएं
तरंगित हो उठे ...
जिससे मन हर्षित हो जन-जन का
लेकिन उससे पहले
परिक्रमा का अंतिम फेरा करें पूरा
और मुस्‍कराती आंखों से कहें अलविदा 2011 को
चलो मिल कर करें अभिनन्‍दन  .... 2012 का

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

एक संवाद निरन्‍तर ....














तुम्‍हें सुकून मिलता होगा न
मौन से
खुद से खुद की कितनी ही बातें
कर लेना तुम्‍हारा
कभी मेरे शब्‍दों का मौन
ढूंढना तुम
वे तुम्‍हें पुकारते हुए मिलेंगे
तुम्‍हारे मेरे बीच यह मौन
यूं जैसे  ...
गंगा जमुना की धाराओं के नीचे
सरस बहाव लिए सरस्‍वती
सच कहूं तो
मौन रहना तुम्‍हारा और मेरा
होता ही नहीं सार्थक
एक संवाद निरन्‍तर चलता रहता है ..

............................

आश्‍चर्य कैसा ...
इस मौन के संवाद करने पर
क्षणांश गंभीरता का
आवरण डाल निकलती तुम
मेरी पुकार को अनसुना करने के लिए
जब मन तुम्‍हारा साथ नहीं देता तो
तुम कानों को बंद करती हथेलियों से
फिर भी तुम्‍हारा मौन
एक प्रश्‍नचिन्‍ह छोड़ जाता
तुम विचलित हो
खुद से बातें करने को
विवश हो जाती ...

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

धड़कन है तभी तो ...!!!












धुंआ अकेला कहां होता है
उसके लिए आग का होना जरूरी है
फिर वह धुंआ
मन्दिर में जलते अगर का हो
या किसी यज्ञशाला में
होते हवन का ...
उसकी पहचान तो हो ही गई ...
लेकिन जिन्‍दगी का
धुंए सा होना
मुमकिन नहीं है
वह तो एक लक्ष्‍य लेकर चलती है
जिन्‍दगी का लक्ष्‍य मृत्‍यु है
लेकिन इस लक्ष्‍य की प्राप्ति होने तक
वह रूह से रूह का नाता
बड़ी ही बेबाकी से निभाती है
जैसे दिये में तेल भी है बाती भी है
लेकिन अग्नि का स्‍पर्श नहीं हुआ तो
कैसे कहेंगे ज्‍योति है ?... दीपक है ?
जब अग्नि है तभी तो धुंआ है
जिन्‍दगी है तभी तो मृत्‍यु है
धड़कन है तभी तो
रूह का होना भी सत्‍य है ...
वर्ना शरीर क्‍या है ?...एक पुतला
ज्‍यों माटी का खिलोना ... !!!


शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

खारे पानी में ....


















कभी देखना हो
वक्‍त का सितम,
मेरी खामोशी को देख लेना ...

म़रहम़  प्‍यार का
मेरे दर्द को
जाने क्‍यूं खारे पानी में
तब्‍दील कर देता है ...

उसका बड़प्‍पन है ये तो
जो मेरे गु़नाहों को भी
हक़ का ओह़दा देता है ...

आईना पढ़ लेता है
मेरी आंखों में तुमको
इसलिए जाने कब से
देखा नहीं उसे ...

रूठकर गए थे तुम
इक बार तो
ये सोचा होता
मुझको मनाना नहीं आता ....

मुहब्‍बत लफ़्ज
बे़मानी हो जाएगा
जो तुमने
मुझ पे ए़तबार न किया ....

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

रूह आ़हत सी ... !!!













बेड़ियां पैरों में हों तो,
तकलीफ होती है
चलने में  ...
गर ख्‍़यालों में
लगानी पड़े जब बेड़ियां
जिंदगी मायूस हो जाती है
कै़द में रहकर
ग़ुनाह का अहसास मन को
कचोटता है ...
अपनी ही धड़कन के स्‍व़र
कुरेदते हैं जख्‍़मों को
आह होठों को छूकर धीमे से
सिसकी में बदलती है जब
रूह आ़हत सी 
जाने किस चाहत की
सज़ा पाती है
नज़र झुकाओ जब भी बस वो
सज़दे में दिखती है ...
दुआओं पे जब
हर इक लम्‍हा बसर होता है
ख़ुद पे अपनी ही
सांसो का क़हर होता है ...
सज़ा का तलबग़ार मन
तेरे सुकू़न की खा़तिर
हर जु़र्म का
इस्‍तेक़बाल करता है ...
ये कहते हुए ..
गर ख्‍़यालों में
लगानी पड़े जब बेड़ियां तो
जिंदगी मायूस हो जाती है
वहां हंसी खामोशी हो जाती है .....!!!

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

कभी तुमसे ....!!!


















प्रेम ... कभी तुमसे
तुम्‍हारे दिल की कहता है
कभी तुम्‍हारे दिल की सुनता है
लेकिन तुमसे वो  नहीं कहता
जो तुम्‍हें पसन्‍द नहीं
वो तुमसे डरता है ...शायद
ये डर भी  इसे
इसी प्रेम ने दिया है
क्‍योंकि इसने तुम्‍हारी खुशियों के साथ
अपनी खुशियां देकर
सौदा कर लिया है मन ही मन
तुम जरा सा भी ना-खुश हो
वह बात इसे मंजूर नहीं होती
बस इसे यही डर सताता है
ये बात कहीं तुम्‍हें  नागवार गुजरी तो  ...
तुम्‍हारा दिल दुखी होगा
वो हंसता है तुम्‍हारी हंसी में
रोता है तुम्‍हारे अश्‍क बहने पे
बहते हुए अश्‍कों के बीच
कभी कर देता है चुपके से
प्रेम ये सवाल भी .... ?
बिखरता है दर्द जब
हद से ज्‍यादा
कुरेद के  ज़ख्‍मी हिस्‍से को
गहराई तक उतरकर
नमी को समेटकर
जाने कैसे अश्‍क बना देती हैं आंखे  ....
...............

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

जिन्‍दगी कहां अंकगणित ....???

सम कुछ भी नहीं,
किसी के पास नहीं
सिवाय अंकों के खेल में
पर जिन्‍दगी
कहां अंकगणित होती है ....
बुद्धत्‍व का बोध कब होता है
जब हम अपने अंदर के
अशुद्ध विचारों को मार देते हैं
उसी पल हमारा नया जन्‍म होता है
खुद को मारने का अर्थ
उन स्थितियों को मारना
जो अहंकार को
बनाये रखती हैं
दृढ़ रहकर
उन हालातों को हटाना जो
हमें सत्‍य की राह से
विलग करते हैं ...
कभी सुख से सुख का सामना हो तो
ईर्ष्‍या हो उठती है
सामने वाले को आखिर वो
सुखी कैसे
मुझसे कम क्‍यूं नहीं
मेरी बराबरी पे
सच बहुत ही नागवार गुजरता है
सुख का सुख से मिलना
मानव मन में
समानता का भाव
कहीं ऊंच-नीच
कहीं वर्ण भेद
कहीं अमीरी-गरीबी तो है ही
लेकिन जब
दुख से दुख मिला तो
मन यहां भी
कसमसा उठता है
खुद को तसल्‍ली देने के लिए
ओह ... मैं अकेला नहीं
वो भी तो दुखी है
खुद को समझा लेता है
किसी तरह
ये मन है ही ऐसा
कुछ भी सम नहीं होने देता ...
किसी ने कहा है
इंसान मन से ही राजा मन से ही फ़कीर ...
भावनाएं ही आपको श्रेष्‍ठ बनाती हैं
फिर वह नज़र आपकी हो या
किसी और की ... !!!

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

कभी झगड़ा तो कभी मुस्‍काना .... !!!

मुक्ति ... मुक्ति ... यह शोर
सुनकर मैंने इस पर
ध्‍यान केन्द्रित किया तो जाना
यह आवाज
मेरे ही अन्‍तर्मन का एक हिस्‍सा थी
शरीर के प्रत्‍येक अव्‍यवों ने
एक स्‍वर साध रखा था
हमें भी कुछ अपने मन की करने दो
बेसाख्‍़ता मैं हंस दी
तुम्‍हारा मन ... मेरी हंसी सुन
सब शांत हो गए मुंह लटक सा गया था
हां-हां तुम्‍हारा मन ...मुझे भी तो बताओ
कौन है ... तभी हथेली बोली
इन बाजुओं को तो देखो
कितना भार हमारे सहारे उठाते हैं
और सारा का सारा क्रेडिट खुद ले जाते हैं
तभी आंख ने  धीरे से कहा
सारे दृश्‍यों का अवलोकन मैं करती हूं
और इसका प्रतिफल मष्तिष्‍क ले उड़ता है
वो कहता है ये उसकी समझ है
तभी तुम सब चीजें पहचान पाते हो
तभी कान ने फड़ककर कहा
यदि मैं न सुनूं ना तो ... तुम सब का
पत्‍ता साफ हो जाएगा ...
कोई कुछ कहता इससे पहले ही
जिभ्‍या गरज़ सी पड़ी और मैं जो
बत्‍तीस दातों के बीच रहकर हर चीज का
रसास्‍वादन कराती हूं वह कुछ नहीं
मैंने तो अपना सर थाम लिया
अरे.. इनके मन में ये सब कब आ गया
मैने बारी-बारी सबको समझाया
एक दूसरे को
उनकी खूबियों से परिचित कराया
तुम सबका मन एक ही है
भले ही तुम्‍हारे कार्य अलग हैं
देखो उंगली को चोट लगती है तो
आंख रोती है न  ...
जब आंख रोती है तो
उंगली आंसू भी पोछती है न
देर रात जाकर कहीं यह निष्‍कर्ष आया
यही तो मन का काम है
एक दूसरे के दुख-सुख में काम आना
कभी झगड़ा तो कभी मुस्‍काना .... !!!

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

सूना इनबॉक्‍स ...( )
















मैने समेटे हैं कई एहसास
इन दिनों
जब तुम्‍हें वक्‍त मिले तो बताना
उन्‍हें तुम्‍हारी नज़र कर दूंगी ...
उन पलों में सिर्फ तुम हो
मिलना हो जब खुद से
तो खबर करना
उन्‍हें भेज दूगी तुम तक
बिना कुछ कहे ...

मुझे कुछ कहना तो नहीं आता,
बस लिख लेती हूं यूं हीं कुछ
जब वक्‍त मिले तो बताना
उन्‍हें मेल कर दूंगी :)
पल भर भी
ये ख्‍याल मत लाना
जवाब देना होगा  क्‍या ?
ना ..घबराना मत
आदत हो गई है अब
सूना इनबॉक्‍स देखने की  ...( )

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

सूखे रूमाल के बीच ....!!!

मुझे कुछ खरीददारी करनी है
कुछ की कीमत पता करनी है
सोचती हूं सबसे पहले
दोस्‍ती की कीमत का पता करूं
फिर उसके साथ
वफा का सौदा कर लूगी ...!
दूर है ठिकाना
अपनो का आओ
एक रिश्‍ता बना लेती हूं नया
उसके साथ चलूंगी
उसी तरह
जिस तरह वो चलेगा मेरे साथ
कोई शर्मिन्‍दगी नहीं होगी
आपस में सारी शर्तें
पहले ही तय कर लेंगे हम
वो मेरे बुरे वक्‍त में साथ होगा
तो मैं उसके बुरे वक्‍त में
दौड़ के पहुंच जाऊंगी उसके पास
खुशी के मौके पर
उसके बुलाने की प्रतीक्षा नहीं करूंगी फिर
लेकिन अभिमान को छोड़ना होगा
उसी दुकान पर तभी तो
मुस्‍कान के बदले हंसी दे सकूंगी
किसी बेगाने को
आंसुओ को सूखने के लिए
छोड़ दिया है जिद करके
सूखे रूमाल के बीच...!!
एक तह लगाकर रख लिया है
मुट्ठी में उसी तरह
जैसे मन को कड़ा करके
तोड़ता है गुलों को गुलशन से माली
देव प्रतिमा पे  चढ़ाने के लिए .... !!!

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

वक्‍त की बात ...











तुम तक पहुंचने के लिए
मुझे बस
कुछ कदमों का
फासला तय करना था
लेकिन कभी
वक्‍त ने साथ नहीं दिया
कभी दिल न इजाजत नहीं दी ...
........................
मैने हालातों को
वक्‍त के हवाले कर दिया है
इसलिए जो है जैसा है
उसे वैसे ही रहने दो
हर घाव भर जाएगा
वक्‍त के मरहम से ....
........................
कठपुतलियों का खेल अब
गुजरे वक्‍त की बात हो गया
पर फिर भी लोग जाने क्‍यूं
कभी किसी के हाथ
सौंप देते हैं खुद को
या किसी को
बना लेते हैं अपने हाथों
की कठपुतली ....

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

द्वेश का बीज ....

मुझे बीज बहुत अच्‍छे लगते हैं,
बचपन में कभी
कोई बीज हांथ लगता तो
उसे घर के आंगन में
उत्‍साह के साथ बो देती थी
नियम से सींचना
और उसे अंकुरित होते
देखने की उत्‍सुकता  में
भोर में उठ जाना
मां मेरी उत्‍सुकता देख कहती
तुम्‍हें पता है ...
जैसे ये बीज हैं न
वैसे ही होते हैं  संस्‍कार के बीज
बस फर्क इतना होता है
उन्‍हें धरती पर नहीं
मन के आंगन में बोया जाता है
मैं हैरानी से  कहती ...मन का आंगन
मां बातों के प्रवाह में कहती
हां परोपकार... सदाचार ...कर्तव्‍य ... निष्‍ठा...
समर्पण ... सम्‍मान
त्‍याग और प्रेम
जो हमें मिलते हैं विरासत में
उनके बीज बचपन से ही तो
बोये जाते हैं
बस बेटा एक बीज
बहुत बुरा होता है और कड़वा भी
वो है द्वेष का 
जानती हो इसमें ईर्ष्‍या की खाद  व
अहित भाव का जल पड़ता है
इसे कभी भी पनपने मत देना
वर्ना यह द्वेश भाव कब 
प्रेम की जड़ों को खोखला कर देता है
कोई नहीं जानता
बड़े से बड़ा वृक्ष
धराशाई हो जाता है
और कितने घोसले उजड़ जाते हैं  ...!!!

सोमवार, 28 नवंबर 2011

अपनी हथेली का ....!!!













बन्‍द पलकों में ख्‍वाबों की
सरगोशियां
आहटें उन कदमों की
जो दूर चले गए
पर दिल के बेहद करीब  थे
जिनके अहसास
उन्‍हें इंतजार रहता था
पलकों के बन्‍द होने का
वो मुझे थपकियां देते
या गुनगुनाते गीत
जिन्‍दगी के .....!
.......................................

सोचती हूं सारे शब्‍दों को
सौंप दूं तुम्‍हें
अपनी हथेली का
इसे विस्‍तृत आकाश देना
इनकी सोच को
धरती ने विस्‍तार दिया था
पर इन्‍हें हसरत थी
गगन में उड़ने की
मुझे तुम्‍हारी हथेलियों पर
एतबार ज्‍यादा है ...!!!!

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

अभिलाषाओं का हवन ....!!!

बहुत दिनों बाद
आज जिन्‍दगी गले मिली
मैने मुस्‍करा के उसका
स्‍वागत किया ...
पर  ...
वो न मुस्‍काई न कुछ बात की
बस सिसकती रही
मैं आहत हो उठी
क्‍या हुआ ...
वो कातर स्‍वर में कहने लगी
कितना मुश्किल
हो गया है न यूं जीना
सबकी हसरतों का ख्‍याल रखना
सिवाय खुद की
तुम्‍हें पता है इन पलों में
कितना बिखर जाती हूं मैं
इच्‍छाओं की पूर्ति
इतनी आसान नहीं होती
जन्‍म से मृत्‍यु
तक की अवधि में
ये कितने सोपान पार करती है
लड़खड़ा के गिरती है कभी संभलती भी
तब भी इसकी
रूह को जन्‍म से संस्‍कारों की परिधि में
बांधकर अभिलाषाओं का हवन
करने के लिए आहुति देनी होती है
प्रेम की ... आस्‍था की ...विश्‍वास की
जिसकी जगह ले लेते हैं
आसानी से काम, क्रोध, मद, लोभ 
इनकी जकड़न से बच कहा पाता है कोई
रूप बदलते रहते हैं
हम कठपुतली की माफिंक
ताउम्र अपने अंतस की
आवाज को अनसुना करते हुए  ..
मन ही मन आहत होते रहते हैं ...
सच कह रही थी जिन्‍दगी
मैं इंकार न कर सकी
सच्‍चाई से उसकी ... ।

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

ये जादू ....!!!

ये जादू क्‍या होता है ...?
यह सवाल मन में
जाने-अंजाने
एक लम्‍बी सी
परछाईं की तरह
आकर खड़ा हो जाता है
जिसका आकार
मेरे सवाल से इतना बड़ा होता
जिसके जवाब में
मैं बस खामोशी की
चादर तान लेती हूं ताकि
वो परछांई अदृश्‍य हो सके ...
हंसी जादू होती है क्‍या ?
या रूप जादू होता है
कहूं तो किसी की आवाज में
जादू होता है ... नहीं, ये सब तो आकर्षण है
फिर ....ये जादू क्‍या है ?
कोई परी जिसके हाथ में
होती जादू की छड़ी
हम उसके साथ हो लेते थे
अपनी ख्‍वाहिशों के साथ
लेकिन सच कहें तो
ये जादू .... .!!!
वास्‍तव में यह माया है
माया का
सीधा सा अर्थ है भ्रम
जिसमें हम ताउम्र जीते रहते हैं
ये किसी भी वस्‍तु या विशेष के लिए
हो सकता है  या फिर जो
अद्भुत कला-कौशल का ज्ञाता हो
तब भी यही अहसास
उठता है जरूर यही जादू है ....
जब छोटे थे तो भी यह सवाल रहता था
मन में हमेशा
कोई शैतानी कर लेते जब
उसकी खबर मां को होती तो
लगता इन्‍हें कैसे पता चला
तब लगता था
जरूर मां को जादू का पता है
सच आज भी कई बातें
जब बिन बताए मां
जान जाती हैं
तो यही लगता है
सबसे बड़ा जादू तो यही हैं....
जिन्‍हें हमारी
हर आहट की खबर होती है ...
बिना कहे ...!

शनिवार, 19 नवंबर 2011

इस बंदगी के लिए ....!!!

हमने ही जाने-अंजाने
जमीं तैयार की थी,
मुहब्‍बत की
तुमने कहा था न
जब प्यार की बातें होती हैं
वहाँ मेरा साया होता ही है .
बस उसी क्षण
मैने तुम्‍हारे यह शब्‍द
चुरा लिये थे
हो सकता है तुम
मेरी इस चोरी के लिए
नाराज हो जाओ मुझसे
या फिर
खामोशी की चादर
ओढ़ लो ...
लेकिन जितना जाना है तुम्‍हें
उससे यह कह सकती हूं
बस थोड़ी देर की खामोशी होगी
फिर होगा तुम्‍हारा
वही प्‍यार
जिसमें हम खामोश रहकर
भी बात कर लिया करते हैं
तुम्‍हें पता है
बिना तुमसे कुछ कहे
मैं लौट आई
उन अहसासों को
अपने दामन में समेटकर
लेकिन इन शब्‍दों को
मैं पल-पल
जीती रही जिन्‍दगी की तरह
कभी करती हूं
बन्‍दगी तुम्‍हारी
कभी तुम्‍हें जी लेती हूं
मन ही मन
सुना है
रिश्‍ते तो ऊपर वाला बनाता है
चाहे वह कोई भी रिश्‍ता हो
उसका नाम हो
या फिर
वह बेनाम ही क्‍यूं न हो
चाहत
जिन्‍दगी की बंदगी करना सिखा देती है
यह तो सुना होगा तुमने भी
मुझे इजाज़त दे दो
इस बंदगी के लिए
एक मुस्‍कान के साथ .... :)

बुधवार, 16 नवंबर 2011

वज़ह मिल जाएगी जीने की .... !!!

दर्द का मौसम
आंसुओं की बारिश
तमन्‍नाएं फिर भी हंसने की
अभी बाकी हैं
हंसते हुए कभी
आंख भर आए तो
चेहरे को छिपाना मत
वर्ना जिंदादिली का तुम्‍हारी
चर्चा आम हो जाएगा
कहने वाले ने क्‍या खूब कहा है ...
बिना लिबास आए थे इस जहान में
बस इक कफ़न की ख़ातिर इतना सफर करना पड़ा
जब जीने की कोई वज़ह न हो
तो जिन्‍दगी में
पन्‍नों से बढ़कर हमसफ़र कोई नहीं होता
तुम्‍हारे हर अश्‍क को
ये अपने सीने में ज़ज्‍ब कर लेता है
और किसी के आगे
अपने लब कभी नहीं खोलता
तुम्‍हारी मायूसियों में
खोजता है
तुमने क्‍या नहीं पाया है
तुम्‍हारी कमियां
तुम्‍हें कभी नहीं गिनाता
नहीं कहता
तुमने क्‍या दिया है उसे
वह तो बस बांटना जानता है तुम्‍हारा
अवसाद तुम्‍हारा दर्द
तुम्‍हारी खुशी में ...
बिन पंखों के उड़ता है ये
फिर भी तुम मायूस हो जिन्‍दगी से
इससे शिक़वा कैसा ...
हौसला है तुम्‍हारे पास
तभी तो जिन्‍दगी को जीने का असली मज़ा है
तूफ़ानो से लड़कर देखो
साहिल पे पहुंचने का उत्‍साह
दुगना होगा ...
कोई तुम्‍हारा नहीं हो सका
इस बात की परवाह मत करो
अपने जैसे किसी
बेगाने की जिन्‍दगी को कुछ सांसे दे दो
तुम्‍हारी जिन्‍दगी को
वज़ह मिल जाएगी जीने की .... !!!

सोमवार, 14 नवंबर 2011

हंसी को आजाद करते हैं .... !!!

  तुम्‍हारे और मेरे बीच
यह खामोशी क्‍यूं
आपस में हमारी कोई
ऐसी बात भी
नहीं हुई
जो तुम्‍हें और मुझे
बुरी लगी हो ...
फिर यह
पहल करने का
अहम बेवजह ही पाल लिया था
मन ने
कौन समझाएगा
अब मन को
छोटी-छोटी बातें
बेमतलब की करके
हंस लिया करते थे
वो हंसी बेकरार है
मेरे तुम्‍हारे अहम के पीछे
तुम गुमसुम हो
तुम्‍हारा चेहरा देख कर
मैं भी खामोश हूं
ऐसा करते हैं भूल जाते हैं
अहम को
हंसी को आजाद करते हैं
आओ कुछ कहने की
शुरूआत करते हैं ....
तुम्‍हें पता है
मैने कहीं पढ़ा था
उंगलियों के मध्‍य
ये रिक्‍त स्‍थान
क्‍यूं रहता है ?
वो इसलिए की
जब हम एक दूसरे का
हांथ थामें तो
उसमें मजबूती कायम रहे :)
बस यही मुस्‍कान
तुम्‍हारे चेहरे पे
भली लगती है
कैद होकर हंसी भी
सच मानो
बिल्‍कुल नमक की डली लगती है .... !!!

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

ढलता हुआ सूरज नहीं देखा ... !!!














खोजते थे तुम पल कोई ऐसा
जिसमें छिपी हो
कोई खुशी मेरे लिए
मैं हंसती जब भी खिलखिलाकर
तुम्‍हारे लबों पर
ये अल्‍फ़ाज होते थे
जिन्‍दगी को जी रहा हूं मैं
ठिठकती ढलते सूरज को देखकर जब भी
तो कहते तुम
रूको एक तस्‍वीर लेने दो
मैं कहती
कभी उगते हुए सूरज के साथ  भी
देख लिया करो मुझे
चिडि़यों की चहचहाहट 
मधुरता साथ लाती है
तुम झेंपकर
बात का रूख बदल देते थे
कुछ देर ठहरते हैं
बस चांद को आने दो छत पे
जानते हो
वो मंजर सारे अब भी
वैसे हैं
मेरी खुशियों को किसी की
नजर लग गई है
मैने बरसों से 
ढलता हुआ सूरज नहीं देखा ... !!!

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

कैसे न करूं मैं परिक्रमा आपकी .....!!!

















मां ...आप
हर बात मन में कैसे
जज्‍ब सी कर लेती हैं
देखिए ना मेरा स्‍नेह
आपको धूरी बना
बस आपकी ही
परिक्रमा करता रहता है
कुछ पूछने पर
आंखो में उसके
नजर आती है
आपकी तस्‍वीर
ये कैसी है तलाश इसकी
जो कभी खत्‍म
नहीं होती ....।
मां ..आप
हर बात को इतनी सहजता से
कैसे ले लेती हैं
जब हम नाराज होते हैं तो
आप झांककर हमारी आंखों में
मुस्‍करा के कहती हैं
तुम्‍हारा चेहरा
बिल्‍कुल अच्‍छा नहीं लगता ऐसे
बताओ तो मुझे क्‍या हुआ
और हम शुरू हो जाते हैं
टेप रिकार्ड का प्‍ले बटन दबा दिया हो
किसी ने जैसे
शिकायतें और शिकायतें
और उस वक्‍त
हम ध्‍यान देते तो देखते
आपका हांथ हमारे सिर पर होता
बस इतनी सी बात
हां मां बात इतनी सी है
इसका अहसास हुआ हमें
आपकी मुस्‍कराहट में
उस धवल हंसी  से
जाना कितना सुकून है
आपके साये में
तो कहिए
कैसे न करूं मैं परिक्रमा आपकी  .....!!!

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

तुमसे कहा क्‍यूं नहीं .... :)


















मुझे कहना होता है जब भी
तुमसे कुछ
उलझनें तुम्‍हारी मुझे
कुछ कहनें नहीं देती
मैं खामोश रह
सोचती रहती हूं बस
तुमको और तुम्‍हारी उलझनों को
मुझे हंसना भी
तुम्‍हारे साथ होता है
बतियाना भी
तुम्‍हारे साथ होता है
खबर है यह  भी  कि
तुम्‍हारी दुनिया बहुत बड़ी है
मेरी दुनिया सिर्फ
तुम से जुड़ी है .....
कहो कैसे संभव है
मेरे लिए कुछ लम्‍हे
चुराने हों तुम्‍हें भरी भीड़ से
मुमकिन है क्‍या ?
ये शिकायत तो नहीं है
बस मन में उठा
इक ख्‍़याल है  ....
कहना जरूरी था
तुम ये न कहो कभी
तुमसे कहा क्‍यूं नहीं .... :)

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

मेरी खुशी ....!!!


 










उसे जानना है मेरे बारे में सब कुछ,
मैं हंस दी
उसके इस सवाल पे
सब कुछ क्‍या होता है
उसने कहा ...
आपकी चाहत, खुशी और हंसी ,
आपकी पसंद
मैं सोच में पड़ गई
क्‍या कहती
इन बातों से तो मैं खुद भी अंजान थी
मेरी चाहत ...
मन ही मन सोचा
अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं मैने
तो उसे क्‍या बताऊं ...
मेरी खुशी ..
दूसरों के चेहरे पर 
मुस्‍कान के सिवा 
कभी कुछ चाहा ही नहीं
मैं उन्‍हीं खुशियों के बीच
रही हंसती सदा
मेरी पसंद भी ऐसी ही है
जो सबको भा जाए
वही मुझे पसंद है ...
उसने अपनी पलकें
हैरानी से झपकाईं
ऐसा भी कहीं होता है
मैने एक लम्‍बी सांस ली
ऐसा होता तो नहीं
पर शायद मेरे साथ ऐसा हो गया है ...!!!!

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

मन की बातें ...!!!













मेरे सवालों के दायरे में
जब वो होती है तो
उसका मन भी मेरी बातों  में
उलझने लगता है
वह मुझे बहलाकर झट से
बाहर हो जाती है
मुझे पता है उसका दिल  भी
मेरी तरह मासूम है
मां है वह तो क्‍या हुआ
कल वो बहू थी किसी के घर  की
उससे पहले बेटी थी किसी के आंगन की
जहां जन्‍म लिया था उसने
पर सदा ही पराये घर जाने की  बातें
सुन-सुनकर बड़ी हुई
दिल तो ताउम्र
एक बच्‍चा रहता है
एक यही है
जो हमेशा सच्‍चा रहता है
हां बढ़ती उम्र के साथ
उसे डालना पड़ता है
चेहरे पर गंभीरता का आवरण
लोग क्‍या कहेंगे
इसी सोच के साथ मन के
हर बेतक्‍कलुफ होते ख्‍याल को
झटकना होता है परे
हंसने मुस्‍कराने से पहले
दिल ही दिल उसकी सहमति से
आम होना पड़ता है
खास बनने के लिए
सोचती हूं कई बार
हम क्‍यूं लोगों के लिए
कभी-कभी न चाहते हुए भी
अपने मन की नहीं कर पाते
बस इसी सोच में उलझ जाते हैं
कि लोग क्‍या कहेंगे ...
कभी बच्‍चों के बड़े होने की दुहाई तो
कभी परिवार वालों की सोच ने
मन की मन में ही रहने दी
सोचती हूं आज
मेरी ये बातें किसी को
गलत तो लगेंगी
पर शायद उन्‍हें सही लगें
जिनके मन की मन में रह गई
बस उन्‍हीं के लिए हैं
ये मन की बातें ...!!!

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

मैं जलाऊं दीप संग दीप ...












मैं जलाऊं दीप संग दीप
तुम उनमें उम्‍मीद का
तेल डालना कुछ ऐसे कि
वो देर रात तक
जलते रहें
मां लक्ष्‍मी के आगमन तक
विश्‍वास की बाती
जब जलेगी तो
उस प्रकाश से अलौकिक होगी
हर घर की दहलीज
तब अंधकार दूर छिटक जाएगा
सूनी गलियां रौशन होंगी
जहां दीवारो पे होंगी
जगमगाती झालरें खुशियों से
दमकेंगे चेहरे हर हांथ में होगा कुछ  मीठा
लबों पे सबके होगा संदेश
दीपावली की शुभकामनाओं का
यह पल होगा प्‍यारा
हम सबकी भावनाओं का ....!!!!

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

कोई अवशेष रह न जाए ...











मैं
दूर जाना चाहती हूं,
तुम्‍हारी हर याद से
हर याद को मैने
बहते जल में
प्रवाहित किया
आते समय अपने पैरों को धोया
अपने उन्‍हीं हांथो से छूकर
कोई अवशेष रह न जाए बाकी
आंसुओ से भीगे चेहरे को
पोछा आंचल से अपने
कम्पित अधरो ने जो कहा
उसे अनसुना कर
मैं थके कदमों से लौट पड़ी
पता है तुम्‍हें
यह हिचकियां
मेरा पीछा नहीं छोड़ रहीं
अब भी लगता है इन्‍हें
तुमसे दूर नहीं जा सकूंगी
पर बताना होगा मुझे
घर की उस दहलीज़ को
जिसे लांघती आई हूं
हरदम साथ तुम्‍हारे
उन दीवारों को
जो राज़दार थीं हर बात की
उन्‍हें भी आदत डालनी होगी
तुम्‍हारे बिना रहने की ....
मैं दूर जाना चाहती हूं .......!!!

सोमवार, 17 अक्टूबर 2011

संभावनाओं के द्वार ....!!!
















संभावनाओं के द्वार
तुम खटखटाओ
तो सही
मुश्किलें बहुत हैं
दूर है मंजिल ....मगर कितनी ?
तुम पाने को उन्हें
हांथ अपना ब़ढ़ाओ तो सही
हार क्यूं मानना
जो विजयी हुए हैं
उनकी पराजय को तुमने कभी
नंगी आंखों से देखा नहीं
जब भी देखा बस यही सोच रखकर
वह कितना वैभवशाली है
कितना सम्पन् है
कितना सुख !! ... आह यह ईर्ष्या क्यूं ??
पूछते जो जानते कितनी रातों का जगा है वो
कितने दिनों की भूख ने उसे आज
इस जीत का सम्मान दिया है...
सच तो यही है ...
जिसे हर कोई नहीं जानता
सच का सामना करना पड़ता है
अदम् साहस से
उसी तरह तुम
पराजय का सामना करो
विजय तुम्हारी होगी
बस शंखनाद करना होगा
अपने मन के उन विचारों को
रौंदना होगा अपने कदमों के तले
मन की इन्द्रियों को थामना होगा
अपनी उन्हीं हथेलियो से
जिसकी तर्जनी से
पोछते आए हो आंसू अपने तुम
ये अबोध मुस्कान कैसी
तुम्हारे लबों पर
मेरी बातें तुम्हें दुश्कर लग रही हैं शायद
नादान हो तुम ...
दुश्कर क्या होता है ?
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
सुना होगा तुमने भी
आओ उठो .. आगे बढ़ो ... वक् बढ़ रहा है
अपनी द्रुत गति से
तुम्हें इसके हर पल को पकड़ना है
पहचान करनी है इन पलों से
तभी तुम लिख पाओगे
एक नई इबारत
जिसे पढ़ने के लिए
तुम्हारे अपने भी होंगे कतार में
बस हौसला रखना
दुनिया तुम्हारे कदमों में होगी
विजय की पताका
तुम्हारे हांथों में ....!!!

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

रूह ने आवाज दी है ....










आज रूह ने आवाज दी है
बुलन्‍द हौसलों को
वे हौसले जो हार कर भी
नहीं हारते थे कभी
थककर भी नहीं थकते थे कभी,
हां शिथिल जरूर हो जाते थे
स्‍नायुतंत्र कमजोर हो जाता था
जीजिविषा उनमें एक
ऐसा संचार करती कि वह
भूल जाता सब कुछ
तब कुछ लोग कहते थे
उम्र का तकाजा होता है ये
मैने नहीं माना कभी भी इसे
भूल जाने का अर्थ
यह नहीं होता कभी भी
वह बात दिमाग से गई तो
दिल से भी गई
नहीं वह दिमाग से निकलकर
दिल में अपनी जगह बना लेती है
और दिल उसे तरंगित करता है
अपनी धड़कनों के साथ .....
एक सच सुनने के लिए
सच को कहना सच को मनन करना
बहुत जरूरी होता है
तभी वह एक आवाज बनता है
जो टकरा सकता है
हर तूफान से जिसमें होती है
वह शक्ति
जो दस्‍तक देती है हर दरवाजे पर
जहां सोई हुई रूहें जाग जाती हैं
और हौसले बुलन्‍द हो
एक आवाज बनते हैं ..... !!!

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

चेहरे पर मुखौटा ....









उतार
फेको अपने चेहरे से
ये मुस्‍कराहट झूठी
ये खिलखलाती हंसी
भ्रमजाल सा बुन दिया है तुमने
मेरे चारों ओर
हर तरफ भीड़ है बस शोर है
हर चेहरे पर मुखौटा है
मन में कुछ चेहरे पर कुछ
कैसी दिनचर्या हो गई है
अपना क्रोध भी छुपाना पड़ता है
पलकों में थमें आंसू रहते हैं
लबों पे दर्द छटपटाता है
फिर क्‍यूं ...
मुस्‍कराहट में
दर्द को दबाना पड़ता है
दवाईयों की एक नियमित डोज से
चूक हो गई तो
फिर असहनीय पीड़ा
तब यह खिलखिलाहट
तुम्‍हारी जिंदादिली सब बेमानी हो जाएंगे
दर्द की दवा नहीं की तो ....
जो तुमसे प्‍यार करते हैं
तुम्‍हें कभी उनकी परवाह नहीं होती क्‍यूं ?
शायद उनकी तरफ से तुम
निश्चिन्‍त होते हो
जो तुमसे प्‍यार नहीं करते
तुम उन्‍हें ही सहेजने के फेर में
दिन रात एक कर देते हो
भूल जाते हो
कोई तुम्‍हारा अपना
आहत हो गया होगा
तुम्‍हारे इस व्‍यवहार से
चेहरे पर मुखौटा मत लगाओ हर वक्‍त
कभी तो अपने चेहरे पर
आने दो सच्‍चे प्‍यार की आभा
खुशी से चहकती आवाज
जिसमें तुम्‍हारा अस्तित्‍व नजर आए
तुम्‍हें भी और दूसरों को भी .... !!!

शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

स्‍नेह को समर्पित ....












प्रेम
सदा ही मधुर होता है,
चाहे लिया जाये या दिया जाये
जहां भी होता है यह
वहां विश्‍वास स्‍वयं उपजता है
किसी के कहने या करने
की जरूरत ही नहीं पड़ती
इसके लिए
प्रेम निस्‍वार्थ भाव
कब ले आता है मन में
कब समर्पण जाग जाता है
कब आस्‍था
आत्‍मा में जागृत हो उठती है
और एक ऊर्जा का संचार करती है
तरंगित धमनियां स्‍नेहमय हो
हर आडम्‍बर से परे
सिर्फ स्‍नेह की छाया तले
अपने जीवन को सौंप
अनेकोनेक सोपान पार कर जाती है
बिना थकान का अनुभव किये
मन हर्षित होता है
जीवन में सिर्फ उल्‍लास होता है
रंजो-गम से दूर
उसे सिर्फ एक ही अक्‍स नजर आता है
स्‍नेह का जिसे जितना बांटो
उतना ही बढ़ता है
अमर बेल की तरह .....
जब काम मरता है तब
प्रेम जागृत होता है
जब लोभ मरता है तो
वैराग्‍य का जन्‍म होता है
जब क्रोध का नष्‍ट होता है
तो क्षमा अस्तित्‍व में आती है
और क्षमा के साथ हम
फिर स्‍नेह को समर्पित हो जाते हैं ....!!!

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

ये तर्पण मेरा ....!!!











बंद पलकों में
आपकी स्‍नेहमयी
छाया उभरती है
समर्पित है इस पितृपक्ष में
मेरी हथेलियों का जल
आपको मां - पापा
सजल नयनों से मैने
आपकी पसन्‍द का
भोजन पकाया है
जिसका कुछ अंश
गाय ने कुछ कौवे ने
कुछ श्रेष्‍ठ जन ने पाया है ....
ये तर्पण मेरा
आपके नाम का
समर्पित है इस श्राद्ध में
श्रद्धा से विश्‍वास से
आप जहां भी होंगे
इसे ग्रहण करेंगे
भावनाएं किसकी हैं ये
कर्म किसने किया
बेटी को ही तो
आप बेटा कहते आए हैं
मत सोचना ऐसा कुछ पल भर भी
आशीष देना बस इतनी
मैं सदा रहूं ऐसे ही ...
मन वचन कर्म की
विरासत लेकर ....!!!

बुधवार, 21 सितंबर 2011

आत्‍मा में अनन्‍त शक्ति.......






प्रत्‍येक आत्‍मा में अनन्‍त शक्ति

विद्यमान रहती है

उसके रूप अलग होते हैं

किसी को

उसी आत्‍मा से श्रद्धा उपजती है

किसी को वेद कंठस्‍थ होते हैं

कोई हो जाता है

ज्ञान का सागर कोई

रह जाता अल्‍पज्ञानी

फिर इनमें से ही आगे निकल

कोई निरा अभिमानी .....

कोई हो जाता लोभी इतना

रिश्‍तों का बलिदान कर देता

कोई दानी इतना बड़ा

खुद की खुशियां हंस के‍ लुटा देता

कोई प्‍यार के लिये ही जीता उम्र भर

कोई नफरत का कारोबार फैलाता .......

आत्‍मचिंतन ....मनन करना

संदेश देना जग में निर्मल विचारों का

हर आत्‍मा का पवित्र होना

परमात्‍मा की दया पर

निर्भर होता है संस्‍कारों की छाया तले

फलती फूलती कोमल भावनाएं

प्रेम का सिंचन करती आत्‍मा जब

जीवन का उद्देश्‍य पूर्ण हो जाता

आत्‍मा में अनन्‍त शक्ति.......!!!!

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

थोड़ी सी खामोशी ......!!!











मेरी
खामोशी
तुम्‍हारी खामोशी से
जब टकराती है
तो कभी अहम तुम्‍हारा
कभी मेरा उसे
बढ़ा देते हैं ....
तुम्‍हारी खामोशी का
हर लफ्ज
मेरे कानों में उतर जाता है
बिन कहे
कैसे हैरां हो जाती हूं
मन की इस समझ पर
कई बार
फिर मुस्‍करा देती हूं
ना चाहकर भी
ये प्‍यार भी जाने
कैसे खेल खेलता है
जिसे चाहता है बेइंतहा
उससे रूठता है झगड़ता है
छोटी-छोटी बात पर
कभी खामोश रहकर चाहता है
कोई उससे बोलने की पहल करे
और वो अपनी
शिकायतों का पिटारा
खोल दे
फिर कभी मन की समझ को
नजरअंदाज कर
ओढ़ लेता है खामोशी
सिर्फ खुद से
बात करने के लिए
कर लेता कैद अपने आपको
रह जाते हैं
जहां सिर्फ वो और सवाल ?
साथ होती है थोड़ी सी खामोशी ......!!!

बुधवार, 14 सितंबर 2011

हिन्‍दी दिवस के नाम पर ...!!!











कहती
है जब हिन्‍दी
अपनी व्‍यथा
इन शब्‍दों में
मैं मातृ भाषा
गौरव से ऊंचा
मेरा मस्‍तक किया
राष्‍ट्र भाषा का
दर्जा दिया ...
14 सितम्‍बर को
मेरा सम्‍मान करना
मुझको वर्ष में
पूरा एक दिन
समर्पित करना
मेरे नाम पर
पूरे पखवाड़े
हिन्‍दी दिवस के नाम पर
सरकारी कार्यालयों में
साहित्यिक कार्यक्रम करना
शोभा बन जाती मैं
बड़े-बड़े बैनरों की ...
यह दिवस विशेष होता
जैसे कोई उत्‍सव हो विदाई का ...!
कोई
कविताओं में मुझे
जीवित रखता
आलेखों में जिक्र करता
मेरे जीवन क्रम का
मैं मौन
पृष्‍ठों पर अंकित वर्णों में
खोजती अपना अस्तित्‍व
फिर फाइलों में
कैद होकर
सहेजकर रख दी जाती
अलमारियों में
एक वर्ष की लम्‍बी
प्रतीक्षा के लिए ...!!
बीते जाएंगे पल ये
फिर हिन्‍दी दिवस आएगा
वर्ष बदला जाएगा
और मां सरस्‍वती को
माल्‍यार्पण कर
हिन्‍दी पखवाड़े का
आयोजन किया जाएगा ..... !!!

सोमवार, 12 सितंबर 2011

आस्‍था तुम्‍हारी ...!!!







आस्‍था

तुम्‍हारी किसके साथ है

तुम किसके आगे नतमस्‍तक

होना चाहते हो

यह तुम्‍हें तय करना है

दिल से

पूछना फिर तय करना .... ।

मानव में आपसी द्वंद

जो विचारों का

टकराव पैदा करता है

ईर्ष्‍याभाव एक-दूसरे से

कभी अहम पैसे का

कभी गुरूर रूतबे का

कभी वर्ण का

कभी कुल का सम्‍पत्ति का

तुम्‍हें पता है न

किसी भी चीज की अति

विनाश कर देती है

फिर तुम्‍हारा अभिमान

किस बात को लेकर है

जानते हो ....

प्रेम की बोली फीका कर देती है

हर दंभ

मेरे अपराजित होने की वजह

तो तुम जान गये होगे

इन सब संपदाओं से बड़ा है आत्‍मबल

जो टकराता है साहस के साथ

लड़ता है स्‍वाभिमान के साथ

घबराता नहीं विपत्तियों में

सिर्फ एक मौन

तुम्‍हारे द्वारा कही गई हर बड़ी बात को

छोटा कर देता है

तुम्‍हारा कर्णभेदी स्‍वर

बताओ तो जरा यह क्रोध किस पर

मुझ पर या खुद की बेबसी पर

और फिर धराशाई हो जाता है

तुम्‍हारा पैसा तुम्‍हारा गुरूर

और तुम

मेरी आस्‍था सिर्फ ईश्‍वर है

मेरे नियम हैं

जिन्‍हें मैने आज भी नहीं बदला

किसी के लिए

इसीलिए चल रही हूं बेखौफ़

धैर्य और विश्‍वास के साथ

निरन्‍तर......!!!



गुरुवार, 8 सितंबर 2011

मन के मुताबिक चलने से .....!!!












आराम
से
थकने के बारे में
सोचा है कभी
इससे भी थक जाता है मन
हर चीज से थकान का अनुभव होता है
नहीं थकते हैं हम सिर्फ
मन के मुताबिक चलने से .....!!!

कभी खुश रहने की
अभिलाषा पूरी नहीं होती
खुशी हमेशा जाने क्‍यूं
दूर ही रहती है
कभी पा लेना
इच्छित वस्‍तु
खुशी को पाना क्षणभंगुर सा
अगले ही पल
बढ़ जाती है खुशी
दूसरे पड़ाव पर
वह नित नये
ठिकाने बदलती रहती ह‍ै
और हम
उसकी तलाश में हो लेते हैं ...!!!

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

अश्‍कों का खारापन ...













(1)
उसकी बातों में,
तल्‍खी है
यक़ीनन उसने
प्‍यार में शिकस्‍त
खाई होगी ....
(2)
दर्द को पिया था
जब उसने
अश्‍कों का खारापन
उसके लबों को
नमकीन कर गया था ....
(3)
बंजर जमीन
बीज का निष्‍प्राण होना
कुरेदती कैसे
अन्‍तर्मन अपना,
नमी खो चुकी थी वो अपनी ...

शनिवार, 3 सितंबर 2011

पलों का हिसाब ....












मैं
जब भी
गुजरे पलों का हिसाब करती
हर बार की तरह
तुम्‍हे भुलाने की खाकर कसम
और ज्‍यादा याद करती
सिसकियां मेरी
खामोशियों पर इस कदर
वार करतीं
तनहाईयों को अपना
गवाह रखती
मैं पलकों को बंद करके
रब से फरियाद करती
मुहब्‍बत भरा दिल देना ठीक है
लेकिन उसका ये अंजाम
होना अच्‍छा नहीं ....
कब तक इस नासमझ को
समझाने के वास्‍ते
मैं यूं तुझसे शिकायत करती रहूंगी ....!!!!

सोमवार, 29 अगस्त 2011

कुछ अंश दान ही करो तुम .....












इस
नश्‍वर तन पर मत इतना अभिमान ही करो तुम,
कर सको इस तन का तो कुछ अंश दान ही करो तुम ।

जिन्‍दगी से लड़ रहा हो जब कभी कोई, उसके लिये,
चाहो कुछ करना तो अपना रक्‍त दान ही करो तुम ।

कौन किसके कितने करीब रहता है वक्‍त जब पड़े,
अगर हो सके तो उनसे एक पहचान ही करो तुम ।

ज्ञान के बदले धन का अर्जन जरूरी तो नहीं होता,
हो सके तो कभी शिक्षा का यूं ही दान भी करो तुम ।

मरने के बाद भी जीवित रहना चाहते हो किसी के साथ,
बन प्रकाश लेकर शपथ इन नेत्रों का दान भी करो तुम ।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

मन के आंगन में .....









मैं उतरना चाहती हूं
तेरे मन के आंगन में
मां तेरी ही तरह
बसना चाहती हूं सबके दिलों में
यूं जैसे तेरी ममता
बसती है ...दर्पण की तरह जिसमें
जिसकी भी नजर पड़ती है
उसे अपना ही
अक्‍स नज़र आता है ... !!!

मैं कच्‍ची मिट्टी
तुम उसकी सोंधी सी महक
अंकुरित हुई तेरे
प्‍यार भरे पावन मन में,
तुलसी के चौरे की
परिक्रमा करती जब तुम
आंचल थामकर
मैं चलती पीछे-पीछे
संस्‍कार से सींचती
तुम मेरा हर कदम
मैं डगमगाती जब भी
तुम उंगली पकड़ाती अपनी
मैं मुस्‍करा के चलती
संग तुम्‍हारे कदम से कदम मिलाकर ... !!!!


मंगलवार, 23 अगस्त 2011

प्रथम काव्‍य संग्रह ‘अर्पिता’ .....









मेरे प्रथम काव्‍य संग्रह अर्पिता का ऑनलाइन विमोचन हिन्दयुग् द्वारा कल जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर किया गया है, जिसमें पुस्‍तक के बारे में अपने विचारों से अवगत करा रही हैं आदरणीय अर्चना चावजी ... तो आइए साझा करते हैं उन विचारों को आपके साथ ...!!!

हिन्‍दयुग्‍म पर अर्पिता ...


शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

आया वापस गांधी है ... !!!!










अन्‍ना तुम संघर्ष करो,
हम तुम्‍हारें साथ हैं .. !!!
वंदे मातरम् .. !!!!
इन शब्‍दों की बुलन्‍दी से
मचा गगन में शोर है ... !
सारा भारत अनेकता से एकता के सूत्र में
बंध गया है ... !!

सत्‍य का यह इकलौता शस्‍त्र
जिससे हर भ्रष्‍टाचारी
भयभीत है ....
ये भ्रष्‍टाचार है... ये अत्‍याचार है ..
यह कहने के बजाय हम
बेआवाज हो गये थे
देख के अनदेखा कर गये
सुनकर अनसुना कर गये
उसे पुकारा है अन्‍ना ने
उनकी इस आवाज में ऐसा जोश है
हर हिन्‍दुस्‍तानी नींद से जाग गया है ...!!

स्‍वाधीनता दिवस को फहराया तिरंगा
आज भी लहरा रहा है
बच्‍चे-बच्‍चे के हांथ में ....
देश प्रेम का ऐसा ज़ज्‍बा जागा है
जिसको देखो
वो इस लड़ाई में शामिल है
लंगड़ा भी दौड़ रहा है
गूंगा भी बोल रहा है
ये वो आंधी है
जिसकी बयार हर तरफ बही है
जिसने सिर्फ एक ही बात कही है
मुल्‍क में आया वापस गांधी है ... !!!!



मंगलवार, 16 अगस्त 2011

मां ...















मां ... के बारे में
बतलाऊंगी मैं तुमको
अपनी कविता में
तो मां नजर आएगी हर शब्‍द में
सबने जाने कितना कुछ
लिखा है पर मां पर ....

फिर भी अभी कुछ बाकी है
कुछ अधूरा है
मां ...कहने से आंखों में झलकता है
एक ममतामयी चेहरा
स्‍नेहिल आंखे
और धवल हंसी .....
मां ...एक सुकून है दिल का
एक ऐसा साया
जिसके होने से हम निश्चिंतता की चादर
तान कर सोते हैं
क्‍योंकि जानते हैं - मां जाग रही है
उसे हर पल की खबर होती है
बिना कुछ कहे वह
अन्‍तर्मन पढ़ लेती है
हमारी भूख हमारी प्‍यास का अहसास
हमसे ज्‍यादा मां को होता है
हमारी व्‍याकुलता ..छटपटाहट उसके सीने में
एक हलचल सी मचा देता है
सोते से जाग जाती है वह
जब भी आवाज दो तो वही शब्‍द
तुम्‍हारे पास ही तो हूं ...
मां .....धरती भी है अम्‍बर भी है
नदिया और समन्‍दर भी है
मां कोमल है तो कठोर भी है
मां की आंखों से डरना भी पड़ता है
कभी-कभी उन आंखो से छिपना भी पड़ता है
भूल गये मां की मार ?
भला किसने नहीं खाई होगी
बताए तो जरा
वो हंसाती भी वो रूलाती भी है
थाम के उंगली चलना सिखलाती है
गिरने से पहले बचाती भी है ....
मां घर की नींव बनकर
पूरे परिवार को मन के आंगन में समेटती है ...
बीज बोती है पल-पल खुशियों के
तभी मिलते हैं हमें संस्‍कार ऐसे
मां ....का नाम आता है लब पर तो
मन श्रद्धा के फूलों सा भावुक हो उठता है
अश्रु रूपी जल से उसे सिंचित करता है
मां ....ईश्‍वर की छाया है
ईश्वर का दूसरा नाम
मां का अभिनन्‍दन करता है ....
मां पर जाने क्‍या - क्‍या कह गया ये मन
फिर भी अधूरा है कुछ .....
मां के बिना .... कुछ भी पूरा नहीं ... !!!!

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

तिरंगे पे समर्पित ....







आजादी
जो हमने पाई है कहता है दिवस याद करो उन्‍हें,
कैसे आजाद हुए हम किनके कांधों पे ये विरासत आई है ।

हंस के कटा दिये शीष नौजवानों ने वतन के नाम पे,
आजाद भारत के सपने देख अपनी जान भी गंवाई है ।

कुर्बानियां उनकी बन गईं निशानियां किस्‍से कहानियां,
रचनाएं कह शहीदों की कितनों ने गौरव गाथा गाई है ।

नन्‍हा बालक अर्पित करने को लेकर सुमन नन्‍हें हांथों,
तिरंगे पे जब चला मां ने शीष नवाने की बात दुहराई है ।

चमन में खिला फूल मुस्‍काया कलियो को भी बतलाया,
खुशकिस्‍मत हैं जो तिरंगे पे समर्पित होने की घड़ी आई है ।


बुधवार, 10 अगस्त 2011

बांधती रक्षा सूत्र ......











वीर
की कलाई पर,
रक्षा का सूत्र
बांधने के लिए
मैने थाली में
अक्षत और रोली
के संग
रेश्‍म की डोर भी रखी है ..

बचपन से फाइव स्‍टॉर
चॉकलेट उसे बहुत पसन्‍द है
उसके बड़े हो जाने पर
मैं चाहकर भी भूल नहीं पाती
और मिठाइयों के बीच
उसे भी सजा लेती हूं ....

वीर मेरा आज भी
मुस्‍करा देता है
स्‍नेह से मेरी ओर देखता फिर
थाली में राखी और मिठाई के बीच
रखी उस चॉकलेट को देखकर
मेरे लिये लाईं हैं न
धीमे से मेरे कानों में कहता ....

जैसे ही मैं हां में सिर हिलाती
कलाई आगे कर कहता
जल्‍दी बांधिये न राखी
कितनी देर लगाती हैं आप ....

स्‍नेह से भीगी आंखे लिये
मैं उसकी कलाई पर
बांधती रक्षा सूत्र
और कहती हमेशा ऐसे ही रहना ......!!!!

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

हंस के मना लेती है मां .....











कोई
रूठता है तो तब हंस के मना लेती है मां,
खुद के सारे गम जाने कहां छिपा लेती है मां ।

आहत होती है जब भी कभी हद से ज्‍यादा वो,
तब बस खामोशी का पहरा लगा लेती है मां ।

दस्‍तक दरवाजे पे देने से पहले खोलती दरवाजा,
मेरे आने का अंदाजा जाने कैसे लगा लेती है मां ।

खजाना अनमोल रखती है मन में सब के लिए,
मुश्किल घड़ी मैं जाने कैसे मुस्‍करा लेती है मां ।

मेरी हंसी मेरे आंसुओं से कीमती है कहकर जब,
आंचल में सर मेरा अपने जब छिपा लेती है मां ।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

संदेशा बादल का .....











रिमझिम ... रिमझिम
गिरती बूंदे
लाई संदेशा बादल का
धरती पे
प्‍यास बुझा लो अपनी
नभ विचलित है ...
मुस्‍काती धरती स्‍नेह से
अम्‍बर को देखकर
महकी हैं सारी फिजा़एं,
उमड़ी हैं काली घटाएं
देखो तो दी हैं किसने सदाएं ...
कोई बूंद
ठहरी है आकर पत्‍ते पर
थिरक सी रही टहनी कोई
बातें करती फूलों से ...
इस बूंद ने देखो
किसी को जीवनदान दिया
कोई बीज
फिर अंकुरित हुआ
उसके नवांकुर
देख रहे सहमे से इन फुहारों को ...
कोई गली आज नदी हो गई
किसी छत से
बहा है झरना जोर का
नाव कागज की बनाकर
बच्‍चे खुश हैं उसको यूं बहाकर
गिरा है कोई फिसलकर
उठ रहा है फिर भी मुस्‍कराकर ...
उनकी शैतानियों को देखो
इन बूंदों के संग
मन मोर हुआ जाता है
तभी तो देखो
बचपन कैसे खिलखिलाता है ...।।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

रश्मि प्रभा जी ....






ब्‍लॉग जगत की ऐसी शख्सियत जिनके न रहने पर सब कुछ अधूरा सा लगता है .. एक खालीपन सा उभर आता है ... क्‍योंकि वो हैं ही ऐसी कभी वह मेरी भावनाएं में ले आती एक से एक भावनाओं के सूत्र जो हमें ले आते हैं एक दूसरे के करीब शख्‍स मेरी कलम से में मिलवा देती हैं अंजान शख्‍स से यूं जैसे कितना करीब था यह हमारे और हम इसे जानते ही न थे उन्‍हें परिकल्‍पना पर सुना इन दिनों समय के रूप में जी हां मैं बात कर रही हूं आदरणीय रश्मि प्रभा जी की उनका स्‍वास्‍थ्‍य पिछले कई दिनों से खराब चल रहा है ...पर वह निरन्‍तर हम सबके बीच अपनी उपस्थिति बनाये हुये यूं रह रही थी जैसे कोई बात न हो उनकी यह जिन्‍दादिली यूं ही हमेशा कायम रहे और वह यूं ही हमेशा ऊर्जावान रहें ... मैने उनके स्‍वास्‍थ्‍य के बारे में कहा तो बताना चाहूंगी यहां पर कि 1 जुलाई को उन्‍हें डॉक्‍टर ने जांच के दौरान बताया कि उनकी किडनी में स्‍टोन है ... और उस दिन से सिलसिला शुरू हुआ उनकी जांच का ..कभी वह ब्‍लड टेस्‍ट कराने जाती तो कहीं किसी अन्‍य जांच के लिये ...फिर आकर हम सबके बीच उसी तरह शामिल हो जाती जैसे कोई बात नहीं हुई सब ठीक है ..आज उनका ऑपरेशन होना है और वह हॉस्पिटल में थोड़ी ही देर पहले एडमिट हुई हैं ..हम सबसे शायद एक सप्‍ताह के लिये दूर रहेंगी ..बस इतना ही चाहूंगी वो जल्‍दी ही इस तकलीफ से निजा़त पायें और शीघ्र स्‍वस्‍थ्‍य होकर हम सबके बीच पुन: शामिल हों ...उनका ऑपरेशन सफल हो ताकि पूर्णत: स्‍वस्‍थ्‍य हो सके ... इन्‍हीं शुभकामनाओं के साथ ...उनके लिये प्रतीक्षारत हूं ... ।

बुधवार, 13 जुलाई 2011

कोई खिलौना चाबी वाला ....












कोई खिलौना चाबी वाला
अगर मैं होता तो
कैसा होता
जब मन करता किसी का
मुझको चलाता
जब मन होता कोने में मुझको रख देते,
तुम ये मत करो,
वो मत करो
बाहर मत जाओ छोटे हो अभी,
कभी कहते हैं
इतने बड़े हो गये फिर भी
हर समय शैतानी करते रहते हो
सब आफिस जाते हैं
मम्‍मी हो या पापा
मैं अकेला आया के साथ
रहता हूं घर पर
टीवी पर कार्टून भी नहीं देखने देती वो मुझको
खुद देखती है
भूख लगती है तो बस एप्‍पल दे देती है
या गंदा लगने वाला दूध
मुझको पीना पड़ता है ....
क्‍या मैं भी जल्‍दी से बड़ा हो सकता हूं
बड़ा होकर फिर
मैं भी आफिस जा सकता हूं .....।

ब्लॉग आर्काइव

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....