मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

आगमन नये साल का ....


पल-पल वक्‍त के साथ कदम मिला के चल,

ठहरता नहीं यहां किसी के लिये कोई भी पल ।

बीते वक्‍त की बातों से सीख लेना सदा ही,

जाने वाला लम्‍हा लौटेगा नहीं, वो होगा कल ।

नया पल, नया दिन लेकर आ रहा है ये साल,

नया, मुस्‍करा के जरा इसका स्‍वागत करें चल ।

भूल के गिला-शिकवा दोस्‍तों से मिल के बांटो,

खुशी, मुबारक हो साल नया दो दुआ इस पल ।

आएंगी बहारें खुद चमन में मुस्‍कराते हुये मिलोगे,

महकेगा आंगन फूलों की खुश्‍बू से तेरा हर पल ।

वादा करें तो तोड़े नहीं, अपनों को साथ लें हम,

उम्‍मीद का दामन कभी छूटे न किसी भी पल ।

आगमन नये साल का, विदा करना हर साल एक,

नये साल को, फिर सजाना आने वाला नया कल !

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

शब्‍द और पंक्तियां जो ....




कागज उजला है फिर भी निखरा नहीं है वह,

कलम उदास पड़ी है कागज के एक कोने में,

उसमें निखार आएगा जब सार्थक अक्षर उसपे,

कलम उतारेगी अपनी नोक से हर एक कोने में ।

किसी का प्रेम, किसी की खुशी, किसी का गम,

बांटती कलम, कभी साझा करती दर्द एक कोने में ।

इसे बहुत ही भाते अक्षर, शब्‍द और पंक्तियां जो,

लिखकर रच देते इतिहास ये रहता सबको संजोने में ।

आड़ी-तिरछी लकीरें जब बच्‍चे खींचकर खुश होते,

इस पर तो यह भी मुस्‍काता संग उनके खुश होने में

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

कोई लहर ...


किनारा आज इतना सूना है

लगता है

कोई लहर आज

इस तरफ नहीं आई

इसे भी आदत हो गई है

लहरों की

सूखापन रेत का

इसे सालता रहता है

अठखेलियां लहरों की

जो चुपके से आ के

छू जाती हैं

इसका एक एक कण

भीग जाता है इसका अन्‍तर्मन ।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

खामोशियां ...


खामोशियां

गहरी होती गई जितनी

वह तन्‍हाई में

सिमटती गई उतनी

ख्‍यालों को बुनती कभी

पर वह उलझ जाते

यूं एक दूसरे में

वह सुलझाये बिना

फिर नये सिरे से

बुनना चालू कर देती

कभी बुनती वह तुझसे मिलना

फिर तेरा बिछड़ना

कभी जिनमें होता तेरा प्‍यार,

या होती बिन बात की तकरार

वादे जन्‍मों जनम साथ निभाने के

या फिर

दर्द जुदाई का देकर

बिन बताये चले जाना

उसे हैरानी होती

आपने आप पर

उसका हर सिरा तुझसे शुरू होकर

तुझपे ही खत्‍म होता

आज भी ।

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

मेरे घाव आज भी ....

See full size imageकहते हैं वक्‍त हर घाव भर देता है

पर मेरे घाव आज भी

उतनी ही टीस देते हैं

संवेदनाओं के मरहम

से मुझे और पीड़ा होती है

सफेदी इसकी

उतनी शीतल नहीं रही

ज्‍वंलत हो गई है

आंखे नहीं देखना चाहती

वह दृश्‍य

जब इन सफेदपोशो ने

चढ़ाये थे इनपर हार फूलों के

इन्‍हें शहीद कहकर

जाने कितने घोषणाओं से

बटोरी थी वाहवाही

कहने की बजाय ये

कुछ करके दिखाते

जिससे कम होता

आतंक का साया

जिसके भय से हम

आज भी मुक्‍त नहीं हुये हैं ।

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

सवाल मेरा ...?


सवाल पर

सवाल मेरा,

तुम्‍हारा

खामोश रहना,

जानते हो

कितनी उलझने

खड़ी कर देता है

मेरे लिये,

उन खामोशी के

पलों में कितना

बिखर जाती हूं

तुम्‍हारे जवाब देने तक

टूट जाती हूं

इतना कि

फिर एकाकार नहीं हो पाती

निर्विकार होकर

अपने आप से ही

विमुख हो जाती हूं

मैं भी तुम्‍हारी तरह ।


शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

हंसी में द्वेश ...

मैं आज बांटना चाहता हूं

लोगो के गम

देना चाहता हूं

उनके होठों पे मुस्‍कान

पर उन्‍हें मेरी

इस बात पे यकीं नहीं होता

जरूर किसी ने उन्‍हें

धोखा दिया होगा,

तभी तो उन्‍हें आदत हो गई है

फरेब, मक्‍कारी की,

धोखे और बेईमानी की

वह सच में झूठ

हंसी में द्वेश

प्‍यार में नफरत को देखा करते हैं ।

बुधवार, 18 नवंबर 2009

देवता पे चढ़ाया न जाएगा ...

कल वो बच्‍चा था बहल गया था बातों से

आज उसकी सोच को बहलाया न जाएगा ।

कलियां खिलने से पहले मुर्झा गई हैं अब,

यूं इनको किसी देवता पे चढ़ाया न जाएगा

मेरे जज्‍बातों की कदर थी उसको तभी तो,

कहा उसने मुंह मोड़ के यूं जाया न जाएगा ।

दफ्न जाने थे कितने राज उसके सीने में,

हर राज यूं सरेआम बतलाया न जाएगा ।

नफरतो के साये में बीता है हर दिन मेरा,

नगमा वफा का मुझसे गाया न जाएगा ।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

भीगा चेहरा ...

मेरे आंसुओ से भीगा चेहरा

तुम्‍हें कभी अच्‍छा नहीं लगता कि

मैं रोऊं

पर कारण जरूर बन जाते हो

कभी देर से आने पर

कभी बिना कुछ कहे

चले जाने पर

कभी कभी हंस के मनाने पर ।


मंगलवार, 10 नवंबर 2009

कौन सा शब्‍द ...?

जाने कब

कौन सा शब्‍द

रच देता है इतिहास

जिससे अमर

हो जाती हैं रचनायें

जाने कौन सा पल

घटित हो जाता है

जीवन में

जाने कब

जब वह अविस्‍मरणीय

हो जाता है,

जाने वक्‍ता हो जाता है

जीवन में कब मौन

खो जाता है हर लफ्ज,

उसका जाने कब

घटित हो जाती हैं

जीवन में

ऐसी घटनाएं

जब वह अपनों के बीच

रहकर भी तन्‍हा हो जाता है !


सोमवार, 9 नवंबर 2009

शबनमी बूंदे जो ...


नाजुक पंखड़ी तेरी हर एक ठहरी गुलाब,

खिले जब तू लगे सिर्फ मेरा ही मेरा हो ।

हवायें मंद-मंद खुश्‍बू साथ तेरी लायें जब,

मन में मेरे तेरी खुश्‍बू का हरदम फेरा हो ।

मैं संभलकर लाख राहों पे चला रहबर तो,

करता क्‍या जो कांटो पे ही तेरा बसेरा हो ।

तेरी नजाकत से वाकिफ हैं कांटे भी तभी,

चाहत में तेरी चारों ओर इनका ही घेरा हो ।

शबनमी बूंदे जो तुझपे आकर ठहर जाती,

कह रही हो जैसे पहले हक इन पे मेरा हो ।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

तेरे डर से वह ...

मैं आज तुझसे तेरी

शिकायत करना चाहता हूं

जिस बात का इल्‍म

तुझको है

पर य‍कीं नहीं

वह भी बताना चाहता हूं

कोई गर

तेरी बात मानता है

तो उसे तेरी

फिक्र होती है

तेरे डर से वह

हर बात मानता नहीं ।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

न सुनने की बीमारी है ...

खामोशियों पे तनहाई आज भारी है,

हम ही जाने कैसे रात गुजारी है ।

कान तरसते रहे सुनने को आवाज,

हर आहट पे चौकता ये हर बारी है ।

मेरे कहते कहते लब सूख गये,

तुझको तो न सुनने की बीमारी है ।

नजरों को झुका लेगा या मुंह फेरेगा,

जाने कोई कैसे ये तू ही अत्‍याचारी है ।

सिला न देना मेरी मुहब्‍बत का मत दे,

रूठे तू जब भी मनाना मेरी जिम्‍मेदारी है ।

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

पवित्रता की आंच पर ....

अभिमान का दाना,

तुम नहीं खाना,

तुम्‍हें भी

अभिमान आ जाएगा

सजाना रिश्‍तों को

अपनेपन से

परोसना

उनकी थाली में

स्‍नेह का भोजन

जिसे पकाया गया हो

पवित्रता की आंच पर

जिससे

उसमें महक होगी

विश्‍वास की,

एकता का रस होगा

जो तुम्‍हारी जिभ्‍या को

रसास्‍वादन कराएगा,

तुम्‍हारी सोच को

संकुचित नहीं होने देगा

एक मजबूत मस्तिष्‍क

जो लड़ सकेगा

हर चुनौती से,

बचाएगा

तुम्‍हारे विचारों को

इधर-उधर भटकने से

संजो सकोगे तुम

वो सपने जिन्‍हें

हकीकत बनने से

कोई रोक नहीं पाएगा ।

शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

टूटना शुभ होता है कांच का ....

हर सवाल का जवाब ढूंढना या देना जाने क्‍यों,

कभी-कभी ऐन वक्‍त पर मुश्किल हो जाता है ।

गिरकर उठना फिर संभल जाना संभव होता है,

नजरों में गिरकर उठ पाना मुश्किल हो जाता है ।

लड़ लेता है इंसान हर लड़ाई गैरों से हर तरह,

अपनों से लड़कर जीतना मुश्किल हो जाता है ।

टूटना शुभ होता है कांच का कहते हैं बला टली,

टुकड़ा चुभ जाए कोई जब मुश्किल हो जाता है ।

कोई हमसफर हो साथ तो रास्‍ता कट जाता है,

जाने कब, तन्‍हा सफर सदा मुश्किल हो जाता है ।

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

रिश्‍तों की अग्नि में ...

मैं लकड़ी होता

और

कोई मुझे जलाता,

तो जलकर

मैं इक आग हो जाता,

डाल देता

कोई उन जलते हुये

अंगारों पर,

कुछ बूंदे पानी की

तो कोयला हो जाता,

कोयले को जलाता

फिर कोई

एक बार तो,

इस बार मैं जलकर

राख हो जाता ।

लेकिन

इंसान हूं

रिश्‍तों की अग्नि में

जाने कितनी बार

जला हूं मैं

बुझा हूं मैं

भीगा भी हूं मैं

लेकिन जलकर

अभी राख नहीं हुआ

कि मिल सकूं माटी

में बनके माटी ।

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

रूह को सुकूं दे जाए ....

(1)

भरम आंखों का

रहने दो आंखो में

छिप जाये जहां

कोई आंसू की बूंद

तेरे सजल नयनों में

इतना दर्द हो

तेरे बैनों में

चीत्‍कार करता

तेरा हृदय

दर्द से तड़पती

रूह को सुकूं दे जाए ।

(2)

मन को मेरे

अहसास तो था

कि तू मेरा नहीं है,

भरोसे को अपने

मैने

मन से ऊपर कर दिया

और

कहा हो सकता है

यह मेरा भरम हो

पर बेवफा

तूने उस भरम को भी

मेरा रहने न दिया

तोड़ दिया

जज्‍बातों को ।

शनिवार, 24 अक्टूबर 2009

रिश्‍तों की उलझन ....

हर रिस्‍ता

जाने कितनी बार

मरता है

जाने कितनी बार

जन्‍म लेता है

कहीं गुबार उठता

मन में तो

उसकी आंख से

बहते हैं

जाने कितने आंसू

जिन्‍हें वह पोंछ देती है

आंखो की लालिमा

देती है गवाही

कितना बरसी हैं वह

पलकों का भारीपन

बतलाता है पीड़ा मन की

होठों का सूखापन

खामोश तड़प को बयां करता

किसी से

कह न पाने की पीड़ा

शायद जीवित रह जाये

यह रिस्‍ता

टूटने ना पाये

टूट गया तो

इसकी गिरह को

वह खोल नहीं पाएगी

कहना चाहकर भी

बहुत कुछ

बोल नहीं पाएगी ।

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

पलकें झुक गईं ....

धड़कनों से पूछा तेरा नाम लेकर मैने,

किसके लिये यूं इतना धड़कना तेरा है ।

तेरे चलने से मेरी सांसे चलती है बस,

मैं तो समझती थी इतना काम तेरा है ।

पलकें झुक गई शर्मोसार होकर जब,

मैने जाना इसमें समाया अक्‍स तेरा है ।

लब खामोश थे कुछ कहते कंपकंपा के,

समझ गई मैं इनमें भी नाम तेरा है ।

चाहत में तेरी मैं खुद से अंजान हुई यूं,

देखा हथेली पे कब से लिखा नाम तेरा है ।

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

एक दिये को दूजे दिये से ...


मनभावन हो देहरी तब

लीपा हो आंगन जब

चंचल चरण उनके

जाने ठहर जायें कब ।

मां लक्ष्‍मी के

आने की बेला पर

सजाना रंगोली द्वार पर

आई हैं वे तुम्‍हारे ही मनुहार पर ।

करना स्‍वागत उनका

संग परिवार के

तज के मन के

सारे अहंकार को ।

एक दिये को

दूजे दिये से

रौशन करना

चारों ओर

अंधकार का नाश हो

हर ओर प्रकाश ही प्रकाश हो ।


!! दीपावली की शुभकामनायें !!

बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

दीपोत्‍सव मनाना है ....


फैलाने को उजाला

जला आज फिर

नन्‍हा दिया भी

उसकी लौ ने

खुशी से कहा

मैं साथ दूंगी

अपनी अन्तिम

सांस तक तुम्‍हारा

बस तुम विचलित

मत होना

हवा के झौके से

फैलाते रहना

अपना उजाला

बच्‍चे कभी

फुलझड़ी भी जलाएंगे

कभी वह बम की

लड़ी भी सुलगाएंगे

तुम डरना मत

जलते रहना

हमें भी रौशन होकर

आज दीपोत्‍सव मनाना है

जलकर भी पड़ता मुस्‍कराना है ।

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

किसी के कदमों तले .....

(1)

टूटा जब

पत्‍ता डाली से,

लिपट के रोया

माली से,

सांस अन्तिम

उसने ली

फिर न लौट पाया

डाली पे ।

सूखा पड़ा रहा

धरा में

कभी रौंदा गया

किसी के कदमों तले

कसक उठता मन

कुछ बचा था अंश

उसे उठा ले गई

एक दिन पवन

(2)

टूटकर गिरी

बिजलियां उस पर,

जो अंधेरे में

छुपकर बैठा था

उन्‍हें कुछ भी

न हुआ

जो तकते थे

गगन !

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

मनाने की जिद लिये ...

उसका दर्द बन गया है अब दवा देखो,

हर पत्‍ता है खामोश कहां है हवा देखो ।

तुम मनाने की जिद लिये बैठे हो वहां,

कह रहा है दिल कौन है हमनवा देखो ।

तुझसे दूर होकर खुद से बिछड़ गया हूं,

उड़ी-उड़ी सी चेहरे की रंगत हमनवा देखो ।

छूटता हांथ से हांथ तो आंखे बात करती,

कब होगी अगली मुलाकात हमनवा देखो ।

धड़कनें चल रही है तो लोग कहते हैं जिंदा,

वर्ना बुत की मानिन्‍द हो गया हमनवा देखो ।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

जब मन हो मतवाला ....

विधि का विधान विधना ने कब है टाला,

उसके लिखे से मिले हर मुंह को निवाला ।

कर्म किये जा फल की इच्‍छा मत कर कहे,

तो सब पर होवे क्‍या जब मन हो मतवाला ।

सुख के सेवरे में दुख की काली रात छुपी,

घबराये न होनी से जो वही हिम्‍मतवाला ।

माला के फेर में मनवा मत पड़ना कहते,

जीते वही जिसने इसे सच्‍ची राह है डाला ।

माटी की देह माटी में मिल जाएगी किस,

अभिमान में तूने यह भरम मन में पाला ।

चूर होते हैं सपने टूटती आशाएं तब भी तेरे,

मन ने क्‍यों यह रोग इतने जतन से संभाला ।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

मां के सपने .....

सपने बुनते-बुनते,

आंखे थक सी गईं थीं

मां की कभी

वह कहती मेरा लाल

जल्‍दी से बड़ा हो जाए

फिर कहती

खूब पढ़-लिख जाए

लाल बड़ा भी हुआ

पढ़ लिख भी गया

मां की आंखो ने

फिर एक सपना बुना

अब यह कमाने लगे तो

मैं एक चांद सी

दुल्‍हन ले आऊं

इसके लिए

मैं डरने लगा था

सपनो से

कहीं

मैं

एक दिन

अलग न हो जाऊं

मां से

इन सपनों की वजह से

मां की दुल्‍हन भी

सपने लेकर आएगी

अपने साजन के

मैं किसकी

आंख में बसूंगा

किसके

सपने पूरे करूंगा ।

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....