जब कभी एक साथ दो लोग मिलकर चलते हैं तो  उन्हें कोई दो कहता है तो कोई 11 लेकिन जहां एक साथ 60 लोग शामिल हों तो  उन्हें आप क्या कहेंगे कोई करिश्मा ही... इस करिश्में को  अंजाम दिया  है इस बार ब्लॉग जगत की बेमिसाल शख्सियत आदरणीय रश्मि प्रभा जी ने  ... बेमिसाल इसलिए की उनके बारे में जितना भी कहा जाए वह कम होता है उनकी  पारखी नज़र के तो हम सभी क़ायल हैं ही इस पुस्तक में स्वयं को पाकर  अभिभूत भी हैं ... इन सबकी तलाश तो की रश्मि जी ने पर इन्हें साथ लेकर  चलें हैं '' हिन्द युग्म '' के शैलेश भारतवासी जी रचना प्राप्ति  से लेकर पुस्तक प्रकाशन से होते हुए पुस्तक को आप तक पहुंचाने का  श्रमसाध्य कार्य आपने जितनी सहजता से किया है उसके लिए आप बधाई के पात्र  हैं ... यह तो थी शुरूआत से लेकर पुस्तक प्राप्त होने के पलो की दास्तान  ... अब उनसे भी मिलना है जो इसमें शामिल हैं ... 
जैसे कभी आप फूलों के बाग में जाएं तो एक मनमोहक खुश्बू आपका  मन मोह लेती है वहां पर किसी एक फूल का उल्लेख नहीं होता ... वहां तो सभी  सुवासित हो अपनी सुगंध बिखेर रहे होते हैं बिल्कुल उसी तरह यह पुस्तक है  जो 
'' शब्दों के अरण्य में ''  इसमें शामिल हर रचनाकार भी अपनी - अपनी  भावनाओं को व्यक्त कर रहा है एक ऐसे वृक्ष की तरह जो अडिग है अविचल है और  अपनी खूबियों से  सबको भा रहा है ... इसी  वजह से इस अरण्य से बाहर आना  मुश्किल सा हो रहा है ... पर चलना तो है ही तो आइए  चलते हैं ... शब्दों के अरण्य में वृक्ष दर वृक्ष पहचान करते हुए ... 
इनका कहना गलत तो नहीं ... 
जीवन जीवन होता है
भिन्न होता है तो दृष्टिकोण, 
जो देता है मायने जीवन को ... 
अंजू अनन्या जी का यह
 '' दृष्टिकोण '' जानकर हम आगे चले तो ... देखते हैं
झूठ की सूली पर चढ़कर 
सत्य अपना शरीर त्याग देता है, 
मगर सच की आत्मा अमर होती है, 
सच कभी मरता नहीं ... 
अनुलता राज नायर जी  '' रस्साकशी - सच और झूठ के बीच ''
समय मिले तो 
मोरपंख के साथ जड़ लेना मुकुट में 
अपने ये अलतई सुमन परिजात के ... 
अपर्णा मनोज जी   '' विष का रंग क्या तेरे वर्ण - सा है कान्हा ?''
न जाने कब से 
संभाल कर रखा है उन्हें मैने 
अपने दिल की अलमारियों में 
अपनी ही सांसों की तरह ... 
अमरेन्द्र अमर जी ...के शब्दों में 
'' मेरी किताब के वो रूपहले पन्ने '' पर पाया मैने ''
वृक्ष की छाया, हरी धरती 
पंछियों का बसेरा, शीतल बयार 
क्यों छीन लिया जीवन का मूल आधार, 
क्यों किया आपने वृक्षों का संहार .. 
ऋता शेखर मधु जी ..
 '' मत संहार करो वृक्षों का ''
ये बेनाम रिश्ते हम नहीं चुनते
ये तो आत्मा चुनती है 
और आत्मा जिस्म नहीं 
आत्मा चाहती है .. ... 
गार्गी चौरसिया जी ... वो रिश्ता ..
 '' अनमोल '' 
ओ मृत प्राय पल !
जाओ और बनो मेरी मुक्ति के देवदूत
मुझे जन्म लेना है आभी तुम्हारी राख से... गीता पंडित जी ... मेरी बूढ़ी होती हुई इन अस्थियों को दे सको तो ...  '' ओ मृत प्राय पल ''     
तुम्हें आंसू नहीं पसंद 
चाहे मेरी आंखों के हों 
या किसी और के 
चाहते हो .. हँसती ही रहूँ .... डॉ. जेन्नी शबनम जी ... मेरी जिन्दगी जी चाहता है तुम्हें श्राप दे ही दूँ  '' जा तुझे इश्क हो '' 
सुबह का सपना सच होता है 
इसलिए सोते हुए, यही प्रार्थना 
कि तुम्हारा सपना आये तो सुबह आये ... डॉ. निधि टंडन जी ... फिर सुबह से रात होने तक बस तुम्हारा ख्याल '' मेरी व्यस्तताऍँ ''
ठंडी आह भर कर 
पुन: कोशिश करती लड़ती अपने विचारों से 
आखिर 
जीत जाते संस्कार और हार जाती वो ... डॉ. प्रीत अरोड़ा जी ... कहती है यही है वो '' संस्कारों की जीत ''
 
तभी तो कूडेदान में सिसकती 
बेटियां यही प्रश्न उठाती हैं  ... डॉ. मोनिका शर्मा जी ... क्यों, कैसे मानुष न रहे हम ?   '' आखिर क्यों विक्षिप्त हुए हम ? ''
अफसानों को हसीन मोड़ पे छोड़ना 
न चाहते हुए भी गम से रिश्ता जोड़ना 
आसान तो नहीं होता 
हवा के रूख को मोड़ना ... 
दिगम्बर नासवा जी .. कुछ न कुछ होने का ये अहसास शायद तभी तो ...
 '' कभी खत्म नहीं होता '' 
पत्नी से बिछुड़ा आदमी 
कर्मयोगी है 
वह संसार से भाग नहीं सकता ... 
दीपिका रानी जी ... नई उम्मीदों, नए हौसलों के साथ ... 
'' पति से बिछुड़ी औरत ''
ओ गंगा तुम बहती हो क्यों 
उस नदी में बहते देखा है 
उसने हमारी सभ्यता को 
फूले हुए 'शव' की तरह ... 
नित्यानंद गायेन जी ... आज वह सहमा हुआ है  ...
 '' आखरी पेड़ और चिडि़या ''
बचपन भले ही चला जाये 
बचपना कहां जाता है 
और शायद यही तो है 
जो इंसान की मासूमियत 
खोने से बचाता है ... 
पल्लवी त्रिवेदी जी ... 
'' हम सब ऐसे ही होते हैं ''
इन आंखों को पढ़ना बहुत मुश्किल है 
पढ़ लिया तो फिर समझना मुश्किल है 
समझ लिया तो फिर भूलना मुश्किल है ... 
मीनाक्षी धन्वंतरी जी ... सुंदर सौम्य, मुस्काती नम्र नम आंखे उनका 
'' व्यक्तित्व '' 
एक ईमानदार
कोशिश,  बस इतना ही ... 
मुकेश कुमार सिन्हा जी .. शायद बन जाय शहंशाह तकदीर से ऊपर उठकर ...
 '' हाथ की लकीरें ''
अब रूकने की जरूरत है 
और यह जानने की जरूरत है
शब्दों के अरण्य में हम सब एक साथ कैसे??... हमें खोजा 
रश्मि प्रभा जी ने ... जिनकी अद्भुत रचना
 '' तथास्तु और सब खत्म ''
हँसते - बतियाते 
ये तारे 
क्या 
हमेशा ही इतनी खुशी से चमकते रहते हैं ?...
 रश्मि रवीजा जी ..  
'' काली कॉफी में उतरती सांझ '' 
मुझे बुलाना हो तो 
शांत मन और मस्तिष्क से 
बुलाओ 
परमात्मा का ध्यान करो ......... 
राजेन्द्र तेला जी .... 
'' नींद मानो रूठ कर बैठ गई ''  
नहीं मिलेगा तुम्हें कभी वरदान 
नहीं खोज पाओगे तुम उसका ब्रह्मांड ... वंदना गुप्ता जी ... '' और श्राप है तुम्हें मगर तब तक नहीं मिलेगा तुम्हें पूर्ण विराम ''
अब कोई सपना अपना नहीं 
थमा उसे सपनों की पोटली 
निश्चिंत हुई  ............ वाणी शर्मा जी ......भर गया मेरा अधूरापन ..........  '' मैं पूर्ण हुई, सम्पूर्ण हुई '' 
मां को मुझे कभी तलाशना नहीं पड़ा 
वो हमेशा ही मेरे पास थीं और हैं अभी भी .... विजय कुमार सम्पत्ति जी ....आज सिर्फ मां की याद रह गई है .... '' तलाश ''
तुम्हें नहीं लगता 
इस पूरी यात्रा में 
सारे रिश्ते ज़ख्म ही बनकर रह जाते हैं ... विभारानी श्रीवास्तव जी ... तो रिश्तों से रू-ब-रू हो या ज़ख्म कुरेदो ... '' बात एक ही है ''
पर पेड़  से गिरे पत्ते 
कहां फिर पेड़ पर लगते हैं 
वो सूखे लम्हें भी 
यहां - वहां बिखरे ही दिखते हैं .... शिखा वार्ष्णेय जी .......जिनके मन के किसी कोने में झिलमिलाते हैं ... '' कुछ पल ''
नादान ख्याल है / मगर सच में सोचती हूँ ऐसा
काश किसी याद को सिरहाने रख कर सो जाऊँ 
और पा जाऊँ तुम्हें तब ............... शैफाली गुप्ता जी ......... क्या कम लगेगी मुझे... '' तुम्हारी कमी ''
  
जिंदगी की राह में 
शूल भी हैं, फूल भी 
किस - किस का त्याग करूं 
और किसे वरण करूं .... संगीता स्वरूप जी ... नाते-रिश्ते सब मेरे दिल के बहुत करीब हैं ... '' किसे अर्पण करूं ''
इंसानों ने जो ऊँचे - ऊँचे टॉवर लगाये हैं 
ये ही हमारे लिए मुसीबत लाये हैं .... संध्या शर्मा जी ..... मुझे सोचने के लिए छोड़ गई  ... '' चिडिया '' 
हम जी न सकेंगे दुनिया में 
माँ जन्मे कोख तुम्हारी से ... सतीश सक्सेना जी ...कैसे तेरे बिन दिन बीते, यह तुम्हें बताने का दिल है ..  '' तेरी याद में '' 
उम्र के इस पड़ाव पर आ 
निकलता हूँ जिस शाम
मैं घर से अपने
सात समुन्दर पार आने को ... समीर लाल जी ... उसके आने का सबब ... '' वापसी ''
लोग कहते हैं - कल छोड़ तो आज को जी 
फिर भी यादें हैं कि अनचाहे चली आती हैं .... सरस दरबारी जी .... बस इस तरह से उम्र बीतती जाती है ... '' यादें ''
यदि ऐक्टिंग है तो अद्भुत है  
करोडो से कम अमिताभ भी नहीं लेता
इस ऐक्टिंग के
इस बेचारे ने तो करोडो का खजाना
कोडियों के मोल बेचा है .... सलिल वर्मा जी ... तभी जनपथ पर बैठा भीख देखो मांगता है ...'' भिक्षुक '' 
मैं मर्यादा पुरूषोत्तम राम 
की मां कौशल्या नहीं 
उनके अनुज लक्ष्मण 
की मां सुमित्रा हूँ ? ...... साधना वैद जी ... फिर मेरी पीड़ा तुम्हारी पीड़ा से बौनी कैसे हो गयी? ... '' सुमित्रा का संताप ''  
कभी कभी आत्मा के गर्भ में 
रह जाते हैं कुछ अंश 
दुखदायी अतीत के ..... सुनीता शानू जी ... अमर बेल की मानिंद '' एक विचार '' 
हाँ ! आज मैं 
मुहब्बत की अदालत में खड़ी होकर 
तुम्हें हर रिश्ते से मुक्त करती हूँ  .... हरकीरत हीर जी .. दर्द के सहारे उस रिश्ते से मुक्त करती हूँ  '' मैं तुम्हें मुक्त करती हूँ '' 
रामायण  - महाभारत, वेद-पुराण इसी अरण्य की जड़े हैं .. पंचतंत्र की कहानियां  यहीं लिखी गईं हैं .. प्रभु के निर्माण को रचनाकार अलग-अलग साँचे देता है  ...   ''शब्दों के अरण्य में''  भी हर रचनाकार ने अपनी रचनाओं से पूरा न्याय किया है कहीं अध्यात्म है  तो कहीं जीवन दर्शन कहीं यादों का संगम तो कहीं मुहब्बत तो कहीं शिकायत  मुहब्बत से ... मैने भी एक छोटा सा प्रयास किया है ... हां इस प्रयास में कुछ नाम  शामिल नहीं कर पाने का अफसोस जरूर है ... पर आप सभी के सहयोग की अपेक्षा भी  है ... एक पहचान करने के लिए सभी से आपको भी पुस्तक की  आवश्यकता महसूस हो रही होगी तो ... इसे आप प्राप्त कर सकते हैं ... ऑनलाइन फ्लिपकॉर्ट पर 
 
जहाँ  आपके लिए यह पुस्तक उपलब्ध है मात्र 200 रूपये की कीमत पर ... अथवा इसके  प्रकाशन संस्थान हिन्द युग्म के इस पते पर भी सम्पर्क कर सकते हैं ...  
 हिन्द युग्म,
1, जिया सराय,
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