शनिवार, 1 दिसंबर 2012

मेरी माँ.. हर विधा में प्रवीण ... स्‍नेह !!!

शब्‍दों के चौक पर ..
भावनाओं का कलश विराजित कर
माँ... की तर्जनी ने पहला पन्‍ना खोला
अनामिका  ने झट ऊँ लिखा
शब्‍दों ने मिलकर पंक्ति की रचना की
सबने मिल-जुल कर स्‍नेह की एक भूमिका बांधी
अपना नाम सुनते ही स्‍नेह ने झट से
माँ की विशेषता बताई
कैसे करनी है उसे सबकी अगुआई
...
मेरी माँ.. हर विधा में प्रवीण
माँ वीणापाणि की सेवा में निस्‍वार्थ भाव से रत रहती
स्‍नेह को जब भूख लगती माँ
झट-पट पकाती लज़ीज खाना हँसते-मुस्‍कराते
स्‍नेह के मुँह में कौर रखती औ सिर पे ममता का हाथ
पता नहीं उस ममतामयी का क्‍या जादू होता
स्‍नेह की आंखे बोझिल होने लगती
माँ गुनगुनाती लोरी मीठे शब्‍दों की
स्‍नेह सपनों की दुनिया में परियों के संग खेलती खेल,
तब तक का सारा वक्‍त माँ लेखन को समर्पित करती
...
एक दिन स्‍नेह ने मासूम सवाल किया ?
तुम जब देखो काम करती रहती हो
कभी हम बच्‍चों का ध्‍यान तो कभी लिखती दिखती हो
बस आराम नहीं करती, माँ सहज भाव से मुस्‍कराते हुये ...
लेखन मेरा 'प्रेम' है  इसके बिना मेरी हर सांस अधूरी है
स्‍नेह की नन्‍हीं पलकें हैरानी से फैल गईं
वो धीमे स्‍वर में बोली 'प्रेम' लेकिन माँ !
किसी को पता चल गया तो आपको प्रेम है तब
माँ उसके सवाल पर हँसी ये प्रेम तो मुझे विरासत में मिला है !
माँ सरस्‍वती की आराधना में निस्‍वार्थ भाव से किया गया कार्य
उनकी श्रेष्‍ठ उपासना है, जिसे माँ सहर्ष स्‍वीकार कर बदले में
यश, ख्‍याति और आत्‍मसंतुष्टि दे हर क्षेत्र में अपराजित रखती है !
...
स्‍नेह ने माँ के गले में नन्‍हीं बांहे डाली और बोली तभी तो
सब आपको प्‍यार और सम्‍मान देते हैं
माँ ने समझाया ..
इसके पहले मैं सबकी भावनाओं का मान करती हूँ
हर नये व्‍यक्ति के आने पर बिना किसी परिचय के उसकी चौखट पर
दस्‍तक़ देती हूँ .. उसे सबसे मिलाती हूँ
फिर यूँ ही खोजते-खोजते अपनी इस अमूल्‍य निधि में
जाने कितने रत्‍नों का संग्रह करते हुए नित सूरज के उगते ही
हर दिशा में एक नई तलाश के साथ
मैं अभिषेक करती हूँ आपनी भावनाओं का तभी पाती हूँ
यह प्‍यार और सम्‍मान याद रखो जो हम पाना चाहते हैं पहले
हमें वही औरों को देना होता है..
स्‍नेह ने समझदारी दिखाई तो मैं आपकी हेल्‍प कैसे कर सकती हूँ
मुझे तो बस आपका ही प्‍यार चाहिये
माँ ने उसकी इस शैतानी पर भी मुस्‍कराते हुये कहा
हर आने वाले का स्‍वागत ! जाने वाले को शुभकामनायें !! देते हुये चुप बैठो !!!
(आदरणीय रश्मि प्रभा जी , जो मेरे ही नहीं कितनों के अन्दर माँ सी छवि लिए रहती हैं -
उनसे जब भी कुछ सुना,पढ़ा,सीखा तो लगा कुछ कहूँ ')

38 टिप्‍पणियां:

  1. आपने तो सबके हिस्से का कह दिया ...वाकई ..:)

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  2. सुन्दर पोस्ट.........रश्मि जी का योगदान अमूल्य है ।

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  3. बेहतरीन कविता ...मन और दिल दोनों को छू गयी.

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  4. मेरी आँखों में तुमसब अति विशिष्ट ..........
    स्नेह,आशीष,शुभकामनायें ..... दुआएँ

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  5. वाह दी वाह एक ही रचना में इतना कुछ कह दिया सचमुच पढ़कर आनंद आ गया.

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  6. जय हो ... सारे भाव समेट लिए आपने तो !

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  7. जिसने भी
    स्नेह से गले लगाया
    मुझे जीवन दर्शन
    समझाया
    विपत्ति में साथ निभाया
    समय से लड़ना सिखाया
    साथ रोया साथ हंसा
    हर पल अपने साथ पाया
    उसे ही
    माँ का रूप समझा मैंने
    उसे ही नमन किया मैंने

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  8. बहुत बढ़िया प्रस्तुति |
    सदा बधाई ||

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  9. सचमुच बहुत ही खुबसूरत लाइन और रश्मि प्रभा जी का योगदान .

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  10. हर दिशा में एक नई तलाश के साथ
    मैं अभिषेक करती हूँ आपनी भावनाओं का तभी पाती हूँ
    यह प्‍यार और सम्‍मान याद रखो जो हम पाना चाहते हैं पहले
    हमें वही औरों को देना होता है..

    ....एक शास्वत सत्य की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

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  11. जिसको भी साथ मिला रश्मि जी का उनके मन के भाव उकेर दिये हैं .... बहुत सुंदर

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  12. उन सभी में एक छोटा सा नाम मेरा भी है | आपने वाकई बहुत अच्छे से हम सब के मन का लिख दिया |
    और साथ ही जो तस्वीर अपने प्रयोग की है , न जाने क्यूँ ये तस्वीर मुझे बहुत पसंद है |

    सादर

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  13. हर आने वाले का स्‍वागत ! जाने वाले को शुभकामनायें !! देते हुये चुप बैठो !!
    आदरणीय रश्मि जी का कहा सोलह आने सच है , साथ ही सच ये भी है की हमे स्वयं उनमे सदा माँ की छवि ही दिखती है।


    सादर

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  14. बहुत सुन्दर कृतज्ञता ज्ञापन रश्मि प्रभाजी के लिए! बहुत सुन्दर!

    जवाब देंहटाएं
  15. .... बहुत ही खुबसूरत लाइन...बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

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  16. आपने सही कहा,,,
    आदरणीय रश्मि प्रभा जी , जो मेरे ही नहीं कितनों के अन्दर माँ सी छवि लिए रहती हैं -
    उनसे जब भी कुछ सुना,पढ़ा,सीखा तो लगा कुछ कहूँ ')

    बहुत उम्दा भावअभिव्यक्ति,,,,,

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  17. मां बेटी के निश्छल प्रेम और सरस्वती की आराधना की इससे बढ़िया अभिव्यक्ति क्या हो सकती है. सदा जी! आपकी लेखनी तो सरिता के प्रवाह की तरह स्वाभाविक गति से निरंतर चलती है. कमाल है.

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  18. सच-मुच उम्दा

    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/11/3.html

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  19. पढते हुये मुझे ऐसा ही लग रहा था जैसे रश्मि जी के लिये लिखा गया हो और जब आखिर में पढा तो लगा कि हाँ कुछ जानने लगी हूँ उन्हें :)

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  20. समेटा नहीं जाता प्रेम कैसे होवूं ऋण मुक्त

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  21. मन के भावो को बहुत ही सादगी और
    सुन्दरता से व्यक्त किया है..बहुत ही खुबसूरत रचना...
    :-)

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  22. waah bahut sundar ..behtreen abhiwykti ...sabke dil ki baat kah di AAPNE TO IS RACHNA MEIN ....

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  23. रश्मि दी के लिए लिखा तो रचना खुद-ब-खुद अनमोल हो गई
    ऐसी ही हैं हम सबकी प्यारी रश्मि दी !!

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  24. बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

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  25. स्‍नेह ने माँ के गले में नन्‍हीं बांहे डाली और बोली तभी तो
    सब आपको प्‍यार और सम्‍मान देते हैं
    माँ ने समझाया ..
    इसके पहले मैं सबकी भावनाओं का मान करती हूँ
    हर नये व्‍यक्ति के आने पर बिना किसी परिचय के उसकी चौखट पर
    दस्‍तक़ देती हूँ .. उसे सबसे मिलाती हूँ
    फिर यूँ ही खोजते-खोजते अपनी इस अमूल्‍य निधि में
    जाने कितने रत्‍नों का संग्रह करते हुए नित सूरज के उगते ही
    हर दिशा में एक नई तलाश के साथ
    मैं अभिषेक करती हूँ आपनी भावनाओं का तभी पाती हूँ
    यह प्‍यार और सम्‍मान याद रखो जो हम पाना चाहते हैं पहले
    हमें वही औरों को देना होता है..

    मैं अभिषेक करती हूँ आपनी ............(अपनी )...........भावनाओं का तभी पाती हूँ .

    आदर करने से आदर नेहा से नेहा मिलता है ......यही सीख है माँ के कोमल स्पर्श संसर्ग की .

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  26. बहुत सुन्दर भाव हैं सदा......
    रश्मि दी के लिए हम सबकी भावनाएँ ऐसी ही हैं...
    उनके ख़याल से ही मन में आदर और प्रेम उमड़ता है..
    आभार..

    अनु

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  27. निश्छल प्रेम की इस अविरल धारा का आनंद केवल महसूस ही किया जा सकता है ...
    दिल में सीधे उतर जाती है ये रचना ...

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