कुछ शब्द चोटिल हैं,
कुछ के मन में दर्द है अभिव्यक्ति का,
हाथ में कलम हो तो
सबसे पहले खींच लो एक हद़ की लक़ीर
जिसे ना लांघा जा सके यूँ सरेआम
बना लो ऐसा कोई नियम
कि फिर पश्चाताप की अग्नि में ना जलना पड़े
मन की खिन्नता ज़बान का कड़वापन
जिन्हें शब्दों में उतारकर
तुमने उन्हें अमर्यादित करने के साथ् ही
कर दिया ज़ख्मी भी !
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उठती टीसों के बीच
सिसकियाँ लेते हुए शब्द सारे
अपनी व्यथा कहते रहे
पर सुनने वाला कोई ना था
सबके मन में अपना-अपना रोष था
अम़न का प़ैगाम बाँटने निकले थे
ज़ोश में खो बैठे होश
अर्थ का अनर्थ कर दिया !!!
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मन के आँगन में जहाँ
शब्द-शब्द करता था परिक्रमा भावनाओं की
जाने कब वर्जनाओं के घेरे पार कर
बनाने के बदले बिगाड़ने में लग गया
रचनाकार उसके स्वरूप को
वक़्त औ' हालात की ज़रूरत एकजुटता है
क़लम ताक़त है न कि कोई क़टार
जिसे जब चाहा उतार दिया
शब्दों के सीने में और कर दिया उन्हें बेजुबान
अगर कहीं जरूरी है कुछ तो वो है
हद़ की लक़ीर !!!
जिसे खींचने के लिए फिर चाहे
क़लम आगे आए अथवा व्यक्तित्व !
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