सोमवार, 31 दिसंबर 2012

जाते हुये पल को ....!!!!

ये सच है आज वर्ष का अंतिम दिन है
नहीं टूट रहा शब्‍दों का मौन
किसी तरह से,
नहीं ठहराव मिला अश्‍कों को बहने से
क्‍या फ़र्क पड़ता है,
सांत्‍वना के दो शब्‍द कहने से
दर्द आंचल में सुबक रहा माँ के
सन्‍नाटा भी चीत्‍कार करता है
हिचकियों का स्‍वर जब
गले में आकर रूँधता है
.... 
सूज गईं हैं पलकें
आंखों की सफेदी पर छा गई है लालिमा
मन की व्‍य‍था लिखती हूँ जब
कागज़ भीग जाता है
क़लम कर देती है चलने से इंकार 
दुआओं की गलियां सूनी हैं
रास्‍ते खामोश हैं सारे
पल-पल गुज़र रहा है एक सिहरन के साथ
कब लौटेगे शुभकामनाओं के शब्‍द
जो एक साथ ही चले गये थे
उसकी मृत्‍यु की खबर पा शोक़ मनाने
.....
मुस्‍कान औंधे मुँह पड़ी है :(  जहां
हँसी ने ओढ़ लिया है लिबा़स मायूसी का
उम्‍मीद घायल हुई है जब से
विश्‍वास छटपटाया है
संकल्‍प की हथेलियाँ भिंच गईं हैं
इन सबको कहना है इतना ही
आज वर्ष के अंतिम दिन
भले ही मत देना शुभकामनाएँ
जाते हुये पल को,
पर ....
आने वाले हर लम्‍हे से कहना ही होगा 
हर पल को शुभ कर देना तुम इतना
जिससे मजबूत हों इमारे इरादे
साहस देना हर एक मन को जिससे
प्रखर हो सके टूटा हुआ विश्‍वास
ओज देना इतना वाणी को  सुनाई दे जाये
वो श्रवण बाधित को
दिखाई दे जाये साहस तुम्‍हारा
दृष्टिहीनों को  !!!!!!

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

मौन ही होता जहाँ अभिषेक !!!

मेरी खामोशियों को देख
शब्‍द आपस में कानाफूसी करते हैं इन दिनो
अपने-अपने क़यास लगाते
जुबां कुछ कहने को तैयार नहीं
मन अपनी धुन में
हर वक्‍़त शून्‍य में विचरता
आखिर वज़ह क्‍या है ??
...
बहुत सोचने पर
एक जवाब आता कहीं भीतर से
हो रहा है कुछ ऐसा
जो नहीं होना चाहिए था
घट रहा है कुछ ऐसा जिसे नहीं घटना था
बस ये चुप्‍पी उस घटित के होने की है
जैसे कोई शांत जल में मारता कंकड
मच जाती एक उथल-पुथल चारों ओर
भंग हो जाती जैसे कोई समाधि
क्षण भर ... मात्र क्षण भर को ही होता ऐसा
फिर झांकती खामोशी मेरी आँखों में
....
कुछ टूटा दिखाई नहीं देता फिर भी
टूटने का स्‍वर कहीं है अन्‍तर्मन में ही
इस खामोशी में !!!!!
तुम्‍हें पता है खामोशियां बहुत कुछ बांटती हैं
सांझा करने में जाने इन्‍हें कैसा सुकून मिलता है
जब कभी जलते हैं सपने
ये चुपके से ले आती खारा पानी आँखों में
मौन ही होता जहाँ अभिषेक !!!

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

न्‍याय की माँग में !!!

आँख नम है
न्‍याय की माँग में
जुल्‍म देख
...
पीड़ा के क्षण
मन का संताप ये
किससे कहें
...
दर्द की चीख
निकलती है जब
घुटती साँसे
...
दमन यूँ ह‍ी
कब तक होगा ये
कहे दामिनी
...
जन आक्रोश
अंज़ाम है चाहता
हक़ के साथ
....

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

कुछ रिश्‍ते ... (8)













कुछ रिश्‍ते
सिर्फ सम्‍मान के होते हैं
सम्‍बोधन उनका कुछ भी हो
बस उन्‍हें
सज़दा करने का जी चाहता है !
.....
कुछ रिश्‍ते
जो अभिमानी होते हैं
उन्‍हें सिर्फ विनम्रता से ही
एक नई राह पर
लाया जा सकता है !
.....
कुछ रिश्‍ते
गुल्‍लक होते हैं
जिनमें हर रोज़ डालना होता है
कुछ अंश स्‍नेह का !
....
कुछ रिश्‍ते
पूँजी होते हैं जीवन की
जिनके संचय में
हर पल सावधानी
रखना आवश्‍यक होता है !
....
कुछ रिश्‍ते
सिर्फ आखेट हो जाते हैं
रिश्‍तों के नाम पर
और अपना मान खो देते हैं !

...

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

समझौतों की कोई जु़बान नहीं होती !!!


















तल्‍लीन चेहरों का सच
कभी पढ़कर देखना
कितने ही घुमावदार रास्‍तों पर
होता हुआ यह
सरपट दौड़ता है मन
हैरान रह जाती हूँ कई बार
इस रफ्त़ार से
....
अच्‍छा लगता है शांत दिखना
पर कितना मुश्किल होता है
भीतर से शांत होना
उतनी ही उथल-पुथल
उतनी ही भागमभाग
जितनी हम
किसी व्‍यस्‍त ट्रैफि़क के
बीच खुद को खड़ा पाते हैं
...
समझौतों की कोई
जु़बान नहीं होती फिर भी
वे हल कर लेते हर मुश्किल को !!!

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

'मैं तो तुम्हारे पास हूँ ...'


















माँ कैसे तुम्‍हें
एक शब्‍द मान लूँ
दुनिया हो मेरी
पूरी तुम
ऑंखे खुलने से लेकर
पलकों के मुंदने तक
तुम सोचती हो
मेरे ही बारे में
हर छोटी से छोटी खुशी
समेट लेती हो
अपने ऑंचल में यूँ
जैसे खज़ाना पा लिया हो कोई
सोचती हूँ ...
यह शब्‍द दुनिया कैसे हो गया मेरी
पकड़ी थी उंगली जब
पहला कदम
उठाया था चलने को
तब भी ...
और अब भी ...मुझसे पहले
मेरी हर मुश्किल में
तुम खड़ी हो जाती हो
और मैं बेपरवाह हो
सोचती हूँ
माँ हैं न सब संभाल लेंगी .....
माँ की कलम मेरे लिए ...!!!
लगता है 
किसी मासूम बच्चे ने
मेरा आँचल पकड़ लिया हो 
जब जब मुड़के देखती हूँ
उसकी मुस्कान में 
बस एक बात होती है
'मैं भी साथ ...'
और मैं उसकी मासूमियत पर 
न्योछावर हो जाती हूँ
आशीषों से भर देती हूँ
कहती हूँ 
'मैं तो तुम्हारे पास हूँ ...'

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

चाह नहीं कुछ पाने की !!!















दर्द को कहना
उसके साथ - साथ बहना होता है
नदी की तरह
कभी शब्‍दों को शब्‍द दर शब्‍द
विष का पान कराना
जैसे अमृत हो जाना हो
फिर मुहब्‍बत का ...
...
जाने कितनी किस्‍मों में
तकसीम़ हुई वह
कभी दरिया कभी नदिया
कभी धारा कभी लहर
कभी बूंद
जब वह तेरे नयनों से बही  थी
अंतिम बार
....
यह कैसा द्वंद है
भावनाओं का  भावनाओं से
जहां अभिलाषा है
बस मिट जाने की
चाह नहीं कुछ पाने की !!!

...

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

मेरी माँ.. हर विधा में प्रवीण ... स्‍नेह !!!

शब्‍दों के चौक पर ..
भावनाओं का कलश विराजित कर
माँ... की तर्जनी ने पहला पन्‍ना खोला
अनामिका  ने झट ऊँ लिखा
शब्‍दों ने मिलकर पंक्ति की रचना की
सबने मिल-जुल कर स्‍नेह की एक भूमिका बांधी
अपना नाम सुनते ही स्‍नेह ने झट से
माँ की विशेषता बताई
कैसे करनी है उसे सबकी अगुआई
...
मेरी माँ.. हर विधा में प्रवीण
माँ वीणापाणि की सेवा में निस्‍वार्थ भाव से रत रहती
स्‍नेह को जब भूख लगती माँ
झट-पट पकाती लज़ीज खाना हँसते-मुस्‍कराते
स्‍नेह के मुँह में कौर रखती औ सिर पे ममता का हाथ
पता नहीं उस ममतामयी का क्‍या जादू होता
स्‍नेह की आंखे बोझिल होने लगती
माँ गुनगुनाती लोरी मीठे शब्‍दों की
स्‍नेह सपनों की दुनिया में परियों के संग खेलती खेल,
तब तक का सारा वक्‍त माँ लेखन को समर्पित करती
...
एक दिन स्‍नेह ने मासूम सवाल किया ?
तुम जब देखो काम करती रहती हो
कभी हम बच्‍चों का ध्‍यान तो कभी लिखती दिखती हो
बस आराम नहीं करती, माँ सहज भाव से मुस्‍कराते हुये ...
लेखन मेरा 'प्रेम' है  इसके बिना मेरी हर सांस अधूरी है
स्‍नेह की नन्‍हीं पलकें हैरानी से फैल गईं
वो धीमे स्‍वर में बोली 'प्रेम' लेकिन माँ !
किसी को पता चल गया तो आपको प्रेम है तब
माँ उसके सवाल पर हँसी ये प्रेम तो मुझे विरासत में मिला है !
माँ सरस्‍वती की आराधना में निस्‍वार्थ भाव से किया गया कार्य
उनकी श्रेष्‍ठ उपासना है, जिसे माँ सहर्ष स्‍वीकार कर बदले में
यश, ख्‍याति और आत्‍मसंतुष्टि दे हर क्षेत्र में अपराजित रखती है !
...
स्‍नेह ने माँ के गले में नन्‍हीं बांहे डाली और बोली तभी तो
सब आपको प्‍यार और सम्‍मान देते हैं
माँ ने समझाया ..
इसके पहले मैं सबकी भावनाओं का मान करती हूँ
हर नये व्‍यक्ति के आने पर बिना किसी परिचय के उसकी चौखट पर
दस्‍तक़ देती हूँ .. उसे सबसे मिलाती हूँ
फिर यूँ ही खोजते-खोजते अपनी इस अमूल्‍य निधि में
जाने कितने रत्‍नों का संग्रह करते हुए नित सूरज के उगते ही
हर दिशा में एक नई तलाश के साथ
मैं अभिषेक करती हूँ आपनी भावनाओं का तभी पाती हूँ
यह प्‍यार और सम्‍मान याद रखो जो हम पाना चाहते हैं पहले
हमें वही औरों को देना होता है..
स्‍नेह ने समझदारी दिखाई तो मैं आपकी हेल्‍प कैसे कर सकती हूँ
मुझे तो बस आपका ही प्‍यार चाहिये
माँ ने उसकी इस शैतानी पर भी मुस्‍कराते हुये कहा
हर आने वाले का स्‍वागत ! जाने वाले को शुभकामनायें !! देते हुये चुप बैठो !!!
(आदरणीय रश्मि प्रभा जी , जो मेरे ही नहीं कितनों के अन्दर माँ सी छवि लिए रहती हैं -
उनसे जब भी कुछ सुना,पढ़ा,सीखा तो लगा कुछ कहूँ ')

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....