शनिवार, 27 जून 2009

आंख-मिचौली नभ में . . .

धरा का सीना छलनी है इतना,

देख के आंखे नम हो जाती हैं ।

मेघ करते आंख-मिचौली नभ में,

देखें बरखा कब तक आ पाती है ।

व्‍याकुल हैं नयना रिमझिम बूंदें,

जाने कब माटी सोंधी कर पाती हैं ।

सहमी हैं हवायें, डर- डर के चलती,

लोगों की उम्‍मीदें जो बंध जाती‍ हैं ।

आने से तेरे हर ओर होंगी सदा बहारे,

झूमेंगी फिजायें पवन ये कहती जाती है ।

12 टिप्‍पणियां:

  1. मानसून कुछ और रुके तो अच्छी अच्छी मेघों वाली बहुत कविताएं रची जाएंगी इसी की तरह :)

    अच्छी कविता !

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  2. sachmuch.............. barkhaa का intezaar तो सब को है........... meghon को dekh कर aas manbdhnaa तो swabhaavik है......... sundar rachnaa

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  3. धरा का सीना छलनी है इतना,
    देख के आंखे नम हो जाती हैं ।
    मेघ करते आंख-मिचौली नभ में,
    देखें बरखा कब तक आ पाती है ।

    वाह...वाह....छंद बद्ध सुन्दर रचना ....!!

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  4. bahut shaandaar kavita........ waaqai mein baarish ka intezaar hai....... yahan lucknow mein to garmi se haalat kharaab hai....... aur shayad poorey india ka yahi haal hai......

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  5. achha likha hai aapne...innocent kavita hai...

    व्‍याकुल हैं नयना रिमझिम बूंदें,
    जाने कब माटी सोंधी कर पाती हैं ...yahaan par kuch kamee reh gayee hai,shayad punctuation ki hi chhoti si mistake ho,par flow zara ajeeb lag raha hai...


    www.pyasasajal.blogspot.com

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  6. ek request hai..please remove this word verification..its not essential,and kai baar comment post hone me kuch technical errors bhi aaye hai is kaaran

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....