बसंत पंचमी की शुभकामनाओं के बीच
मॉं सरस्वती का पूजन भी हुआ
बसंत का शुभ आगमन हो
वंदन गीत भी गाए
पर फिर भी बसंत हैरान है
जाने क्यूँ
उसकी बेचैनी कम नहीं हो रही
सोच रहा है निरन्तर
अपनी बयार ले किधर से निकलूं
इन बड़ी-बड़ी ईमारतों के बीच
तनिक भी गुंजाइश नहीं
मेरे समाने की ...
इनसे टकराकर जब भी निकलता हूँ
जख्मी हो जाता हूँ
मैं लहूलुहान हो तलाशता हूँ
हरे-भरे पेड़ नहीं दिखते आम के
जिनपर होते थे इन दिनों बौर
मैं सुनता था जिनपर झूम के
कोयल की कूहू-कुहू
खेतों में पीली सरसो की
बिछी होती थी चादर सी
ढूंढ रही हैं उसकी खामोशी
बगीचों में उन रंगीन फूलों को
तलाश है उसे उन बगीचों की जहां
तितलियां अपने सजीले पंख लिए
इतराया करती थीं भंवरे गुनगुन की धुन से
फूलों पर मंडराया करते थे ...
उन तितलियों के संग होती थी
कोई मासूम हंसी
तितलियों को पकड़ने की ललक
व्यथित बसंत आज भी
उसी उमंग से छा जाना चाहता है
गगन में पतंग के संग
जहां मजबूत मांझे के साथ
'वो काटा' का जूनून
दोस्ती के हाथों में डोर भरी
चरखी को थमाकर होता था
वह मधुबन की खुश्बू के साथ
बसंती चोले के बीच
खुशियों के झूलों में झूल कोई गीत बन
लबों पे गूंजना चाहता है कहीं तो
कहीं कानों में धीमे से गुनगुना के कहता है
मैं आना चाहता हूं ... अपनी बयार से
तुम सबका जीवन सजाना चाहता हूँ
मेरे रास्ते यूँ बन्द न करो ....!!!
बहुत सुन्दरता से आजकल के हालत वर्णन किया आपने ..
जवाब देंहटाएंसोचता तो यही होगा बसंत पर उस से कह दो ,मेरे घर के बाजू से निकले..
kalamdaan.blogspot.in
बसंत के सुंदर भाव लिए बेहतरीन रचना,लाजबाब प्रस्तुतीकरण..
जवाब देंहटाएंवाह! लाजवाब प्रस्तुति बसंत की व्यथा को सुन्दर शब्दो मे सहेजा है।
जवाब देंहटाएंअपनी बयार ले किधर से निकलूं
जवाब देंहटाएंइन बड़ी-बड़ी ईमारतों के बीच
तनिक भी गुंजाइश नहीं
मेरे समाने की ...
....
हमेशा की तरह एक बहुत ही गहरी कविता !!
आज का सच ब्यान करती रचना ... बहुत खूब लिखा है आपने ....http://mhare-anubhav.blogspot.com/ समय मिले कभी तो आयेगा मेरी इस पोस्ट पर आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंजहां मजबूत मांझे के साथ
जवाब देंहटाएं'वो काटा' का जूनून
हूँ....पतंग कटी हो या नहीं पर आपके इस बसंत वर्णन ने तो 'काट' ही दिया ....
सबका पत्ता ..............:))
waah bahut sundar ........इन बड़ी-बड़ी ईमारतों के बीच
हटाएंतनिक भी गुंजाइश नहीं
मेरे समाने की ...
इनसे टकराकर जब भी निकलता हूँ
जख्मी हो जाता हूँ
मैं लहूलुहान हो तलाशता हूँ
हरे-भरे पेड़ नहीं दिखते आम के sach bilkul sahi kaha ...
sadaa kee tarah sadaa detee sadaa ji kee rachnaa
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना, इन बड़ी बड़ी बिल्डिंगो के बीच अब बसंत नहीं बेसमेंट ही आ सकता है !
जवाब देंहटाएंवसंत कहाँ आये - सीमेंट के जंगलों में न फूल फूलते हैं न हरियाली झूमती है .तितलियां, भौंरे और कोयल निष्कासित हैं .पतंग उड़ाने को न किसी के पास समय है और आँगन या छतें भी कहाँ हैं घरों में ?
जवाब देंहटाएंवाह... बहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंबेचारा बसंत ...
जवाब देंहटाएंकंक्रीट के जंगल में
हो रहा है लहुलुहान
खत्म हो गयी
बासंती बयार की शान
इस रचना में बसंत की वेदना साफ़ झलक रही है .. बहुत अच्छी प्रस्तुति
बसंत का रास्ता यूँ न रोको ....सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दरता से बसंत का वर्णन किया है....बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंवसन्त के दर्द को तो किसी ने अब तक जाना ही नहीं था...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सदा जी..
ढेर सा स्नेह.:-)
खुबसूरत रचना.....
जवाब देंहटाएंबसंत भी हैरां , परेशान !
जवाब देंहटाएंबसन्त अब बस अन्त हो गया है।
जवाब देंहटाएंहर जगह प्रकाश पहुँचाने की व्यग्रता है उसे..
जवाब देंहटाएंआज के हालात से बसंत भी परेशान है..सुन्दर अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंवसन्त के बहाने आपकी व्यथा सुन्दररूप में व्यक्त हुई है । जाने क्यूँ कविता दिलको छू लेने वाली है ।
जवाब देंहटाएंवसन्त के बहाने आपकी व्यथा सुन्दररूप में व्यक्त हुई है । जाने क्यूँ कविता दिलको छू लेने वाली है ।
जवाब देंहटाएंबसंत के बहाने आपसी दूरियों की बात , बहुत सुंदर ढंग से कही.......
जवाब देंहटाएंशहरों के मॉडर्नाइज़ेशन और गगनचुम्बी इमारतों ने सच में वासंती फुहार के स्पर्श से हमें वंचित कर दिया है ! वसन्त के मन की पीड़ा को बहुत ही मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति दी है ! अति सुन्दर ! बधाई एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंबसंत की पीडा के माध्यम से मौजूदा दौर में इंसानी व्यस्तता, भौतिकता की दौड पर गहरा प्रहार करती रचना।
जवाब देंहटाएंमहानगरों में वसन्त का सौंदर्य कहाँ दिखाई देता है..वसन्त के अंतस की पीड़ा को बहुत सुंदर शब्द दिए हैं..बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवसंत की पीड़ा को सुंदरता से व्यक्त किया है.
जवाब देंहटाएंवसंत के आगमन पर एक गंभीर रचना प्रस्तुत की है. बधाई.
जवाब देंहटाएंsunder kavita aur sunder blog
जवाब देंहटाएंसंवेदनहीन इंसान पे कडा प्रहार किया है ... प्रकृति खत्म होने पे वो भो नहीं रहगा ... ये बात समाख नहीं आती ...
जवाब देंहटाएंअरे वाह! अटके हुए वसंत का दर्द मैने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया है!
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