किसी यक़ीन के
टुकड़े उठाये हैं तुमने
उन लम्हों में दर्द ने
झकझोरा है क्या तुम्हें
कभी किसी यक़ीन ने
बेबस किया तो
एक चीख
गले में आकर
जाने क्यूँ
दम तोड़ गई !
दम तोड़ गई !
...
कुछ चीखें
खुशी के कम
दर्द के ज्यादा करीब होती हैं
इनकी आवाज़ों पे
अश्कों का बहना ही नहीं होता
जाने कितनी जि़ंदगियां
बुतों में तब़्दील हो
मनाती हैं सोग
इन चीखों का !!
इन चीखों का !!
...
ये चीखें
दिलों के पार ही नहीं जाती
जाती हैं दरवाज़ों के
दीवारों के पार भी
खड़ा कर देती हैं मातम़
जहाँ बिना लकडि़यों के भी
सुलगती है एक आग
और आँखें हो उठती धुँआ-धुँआ !!!
जब दर्द हद से अधिक हो तो चीख गले में रुक जाती है
जवाब देंहटाएंआँखें रेगिस्तान हो जाती हैं
चीखें तो अक्सर दर्द के ही करीब होती हैं .
जवाब देंहटाएंयकीन जब खुद पर हो तो उसे तोड़ना आसान नहीं...इस पीड़ा के पार ही छुपा है एक कल कल छलकते जल का सरवर....
जवाब देंहटाएंवाकई ऐसा ही होता है । मन को छूते भाव
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-02-2015) को रहे विपक्षी खीज, रात दिन बढ़ता चंदा ; चर्चा मंच 1879 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुंदर रचना ... आपका धन्यवाद ...
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.
बहुत सुन्दर भाव.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : ओऽम नमः सिद्धम
पीड़ , दर्द , चीख.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
एक चीख गले में
जवाब देंहटाएंआकर जाने क्यूँ
दम तोड़ गई !
... अहा ! बेहद खूबसूरत...
कई मर्तबा दर्द वहीं ज्यादा होता है..जहाँ चीखें नहीं होती। सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंऐसा लगता है गहरे अंतस से उपजी है यह रचना! दर्द और चीख़ें... ज़रा सा सध गईं तो तकलीफ नहीं देतीं!
जवाब देंहटाएंये बवंडर क्यों उठा ?
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