शब्दों की चुभन से
कई बार मन
बस हैरान रह जाता है
ताकते हुये शून्य में सोचता है
कैसे इतने पैने हो गये हैं ये
आक्रामक हो जाना
इनका यूँ अचानक से
भाता नहीं
शब्दों का तीखापन
जिंदगी के स्वाद को
बेमज़ा सा कर जाता
एक आह निकलती
तो कभी सिसकी !
...
एक चुटकी मिठास की
जबान पे इनकी
रख देता गर कोई
तो क्या बिगड़ जाता
वक़्त का मिज़ाज सिखाता रहा
जीने का सलीका
तो कभी बचाता रहा
बदज़ुबानी से इन्हें
तो कभी ख़ामोश रहकर
इन्हें अनसुना भी किया है
जाने कितनी बार !
...
ठगना भी आता है
इन शब्दों को
और लुभाना भी
मोहित भी करते हैं
और चैन भी छीन लेते हैं
तुमसे वफ़ादारी की
कसमें भी खाते हैं
और सम्बंधों की
दुहाई भी देते हैं
बस इतना ही
ये अहसान करते हैं
कि निर्णय का अधिकार
सौंपना तुम्हें नहीं भूलते !!!
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