शनिवार, 30 मार्च 2013

अडिगता से सफलता की ओर !!!!

कभी मन के खिलाफ़
चली है आँधी तुम्‍हारे शब्‍दों की
कभी नहीं चाहते हो जो लिखना वह भी
लिख डालती है कलम एक ही झटके में
वर्जनाओं के घेरे में करती परिक्रमा
शब्‍दों की तोड़ती है अहम् की सरहदों के पार
कुछ तिनके उड़कर दूर तलक़ जाते हैं
कुछ घोसलों में सजाये जाते हैं
कुछ कदमों तले रौंदे जाते हैं
...
एक ही विषय पर इस मन के
अलग-अलग से ख्‍यालों की दुनिया
हर बार घूमना, ठिठकना पल भर
कभी इस दिशा से उस दिशा तक जाना
समेटने को सार
चंचल, चपल हो जाना कभी अधीर
उसकी अधीरता ने कई बार
तोड़े हैं नियम जाने कितने ही
जिनकी माफ़ी नहीं होती थी कोई
उसके लिए भी वह अडिगता की धूनी रमा
एक अलख जगा लेता था हर बार
.....
अडिगता का सार
मन को पकड़ना इसकी चंचलता के परे
सफलता को नये सिरे से पकड़ना
सकारात्‍मकता की पहली सीढ़ी है
जो हमेशा ही जीवन में
एक नया दृष्टिकोण देता है
और विचारों को ओजस्विता मिलती है
अडिगता से सफलता की ओर !!!!

सोमवार, 25 मार्च 2013

इस होली किस रंग !!!














पुडि़या में रखे रंग
माँ की धरोहर हुआ करते थे,
कितने भी नये रंग  खरीदे जाते
पर माँ का सारा स्‍नेह
उस पुडि़या पर ही टिका रहता
हम हँसते क्‍या माँssss
तो माँ भी हँस देती साथ ही पर !!!!
पुडि़या का रंग सारा हम पर उड़ेल दिया जाता
हम भी भावनाओं के आँगन में
जमकर मस्‍ती करते !!!!
...
वहीं हरा रंग जरा शरारती हो जाता,
उसे देख मन मचलता
और पिचकारी जो भरी जाती
तो सब उस हरे रंग में रंग ही जाते
....
रंगों की टोली जब अपने रंग में रंगी हो
जो इनका उधम देखना हो तो,
नारंगी रंग मत भूलना
माँ कहती है यह वचनबद्धता का प्रतीक होता है 
औ' लाल रंग स्‍नेह का
तो कहिये इस होली किस रंग !!!
रंगना चाहते हैं आप ??

मंगलवार, 19 मार्च 2013

जीवनदान देती है, देती रहेगी !!!





















जिन्‍दगी को बेखौफ़ होकर जीने का
अपना ही मजा है
कुछ लोग मेरा अस्तित्‍व खत्‍म कर
भले ही यह कहने की मंशा मन में पाले हुये हों
कभी थी, कभी रही होगी, कभी रहना चाहती थी नारी
उनसे मैं पूरे बुलन्‍द हौसलों के साथ
कहना चाहती हूँ, मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी ....
न्‍याय की अदालत में गीता की तरह
जिसकी शपथ लेकर लड़ी जाती है
हर लड़ाई - सत्‍य की,
जहाँ हर पराज़य को विजय में बदला जाता है
....
गीता धर्म की अमूल्‍य निधि है जैसे वैसे ही
मेरा अस्तित्‍व नदियों में गंगा है,
मर्यादित आचरण में आज भी मुझे
सीता की उपमा से सम्‍मानित किया जाता है
धीरता में मुझे सावित्री भी कहा है
तो  हर आलोचना से परे  वो मैं ही थी जो
शक्ति का रूप कहलाई दुर्गा के अवतार में
....
मुझे परखा गया जब भी कसौटियों पर,
हर बार तप कर कुंदन हुई मैं
फिर भी मेरा कुंदन होना
किसी को रास नहीं आता
हर बार वही कांट-छांट
वही परख मेरी हर बार की जाती,
मैं जलकर भस्‍म होती
तो औषधि बन जाती
यही है मेरे अस्तित्‍व की
जिजीविषा जो खुद मिटकर भी
औरों को जीवनदान देती है, देती रहेगी !!!
मैं पूरे बुलन्‍द हौसलों के साथ फिर से
कहना चाहती हूँ, मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी ....

गुरुवार, 14 मार्च 2013

उम्‍मीदों के जुगनु !!!!


















जिद् की मुट्ठी में हर बार वो
उम्‍मीदों के जुगनु लिये
अंधेरे को चीरता चला जाता
कभी जब दिल घबराया तो
प्रयास की लाठी टेकी,
लड़खड़ाते कदमों से उसने,
जिम्‍मेदार हो हथेलियाँ तभी
प्रदर्शित करती शक्ति को
इस शक्ति की आस्‍था से
थम जाती कदमों की लड़खडा‍हट
निर्भय हो कदम से कदम
साथ हो लेते जिंदगी के !!!
....
जिंदगी को जीने के लिये
जज्‍बा खुद रास्‍ते तैयार करता,
दिशायें मौन ही निमंत्रण देतीं
तभी तो पगड़डियों से
कच्‍चे रास्‍ते, कच्‍चे रास्‍तों से
जुड़ती सड़कें जिनसे बाते करती हवा
फिर भी परवाह कहाँ होती
किसी के साथ होने या न होने की
एक हौसला साथ जो चल रहा था
परवाह तो बस तपती धूप में
बर्फ बन पिघल रही होती !!!!

गुरुवार, 7 मार्च 2013

यादों के साथ इनकी बनती बड़ी है :)
















कई बार जिंदगी पर
उदासियों का हक भी बनता है
खुशियों के मेले में भी कोई
अकेला होता है जब
बस मन के साथ होता है
एक कोना उदासी का
...
उस कोने में सिमटी होती है
कुछ गठरियाँ यादों की
जिनकी गिरह पर जमी धूल
चाहती है झड़ जाना
अपनत्‍व के स्‍पर्श से
निकलना चाहती हैं बाहर
कुछ बेचैन सी यादें
.....
जिन्‍हें समेटकर यूँ ही कभी
लगा दी थीं गठान
वे सबकी सब बगावत पर
उतर आईं हैं
जिन्‍होंने दे दिया है आज धरना
मन के कोने में
बस इसी वजह से बाहर की भीड़ भी
अकेले होने पर मजबूर करती हैं तो,
ये उदासियाँ भी जिद पर अड़ी हैं
यादों के साथ इनकी बनती बड़ी है :)

सोमवार, 4 मार्च 2013

जाने कैसे अपाहिज़ हो गया ?????

उसे पोलियो हो गया !
हर बार दिये मैने उसे
विश्‍वास की उंगलियों से
दो बूँद जिंदगी की तरह
संस्‍कार समय-समय पर
फिर भी जाने कैसे ??
अपाहिज़ हो गया उसका मस्तिष्‍क  !!!!!!!

....
कभी विचार पूर्वक उसने
रखे नहीं दो कदम
जब भी निर्णय लिया एकांगी
जब भी जिद् पे अड़ा
अपने ही मन की उसने की सदा
कभी सामने वाले की
भावनाओं को समझा ही नहीं
तुम ही कहो
आखिर हुआ न वह पोलियोग्रस्‍त
अपनी मैं पर उछलता हुआ
....
भरी भीड़ में भी अकेला
कोई साथ नहीं चलना चाहता उसके
या वही होना चाहता है
लक़ीर का फ़कीर
तभी तो मैं के गुमान में
अपाहिज़ मस्तिष्‍क लिये
सच सुनते ही बौखला उठता है
और मैं सोचती रही
संस्‍कारों के नियमित दिये जाने पर भी
यह कैसा दुष्‍परिणाम !!!

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

बस तुम्‍हारी हँसी !!!

कुछ कीमती था तो मेरे लिए
बस तुम्‍हारी हँसी,
ना आँसुओं की कीमत मत पूछना
ये तो अनमोल हैं
नहीं चाहता मैं तुम इन्‍हें
किसी भी कीमत पर यूँ बह जाने दो
...
कुछ शब्‍द मुहब्‍बत की किताब में
बहुत ही कीमती होते हैं
जिनके होने से कभी लगता ही नहीं
कि जिन्‍दगी अभावों में है
शर्त यह है कि
जिन्‍दगी का हर वर्का
इस किताब में सजि़ल्‍द हो
...
जब भी पढ़ा हर बार मुझे जिन्‍दगी
बस मुस्‍कराती सी लगी
तब मैने जाना
इसकी अहमियत को
बस तभी से
हर लम्‍हा इसके नाम कर दिया
...

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....