घर की दहलीज़ ने
आना-जाना और निभाना देखा
बन्द किवाड़ों ने सिर्फ़
अपना वजूद जाना
ये भूलकर की उन्हें थामकर
रखने वाली दहलीज़
कोई साँकल नहीं जो हर बार
बजकर या कुंदे पे चढ़कर
अपने होने का अहसास कराती
वो तो बस मौन ही
अपना होने का फ़र्ज निभाती है !!
...
खुशियों में रौनक बन जाती
त्योहारों पे दीप सजा
जगमग हो जाती
बने रंगोली जब भी
ये फूली न समाती
रंग उत्सव के पूछो इससे
हर क्षण बस मंगल गाती !!!!
वाह ! दहलीज की मौन सुन्दरता को बखूबी बयाँ किया है आपने..
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-06-2018) को "गढ़ता रोज कुम्हार" (चर्चा अंक-2997) (चर्चा अंक-2969) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबन्द किवाड़ों ने सिर्फ़ अपना वजूद जाना...कितनी खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ८ जून को मनाया गया समुद्र दिवस “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ११ जून २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह!!सीमा जी ,बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंघर की दहलीज कितना कुछ संजो के रखती है अपने मन में और चारदीवारी के भीतर ... मन को छूने वाली रचना है ...
जवाब देंहटाएंमौन रह कर भी घर की दहलीज़ ही है जो घर को सुरक्षित भी रखती ही . सुंदर रचना .
जवाब देंहटाएंमौन सहादत देती है ठौकरों मे रहती है विरूदावली, पतन सब की साक्षी अचल अडिग देहरी होती है।
जवाब देंहटाएंअनुपम कृति।
प्रिय सीमा जी दहलीज का मानवीकरण कर उसके आंतरिक भावों को समेटती रचना बहुत खूब है | बहुत अच्छा लिखा आपने | हार्दिक शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंवो तो बस मौन ही
जवाब देंहटाएंअपना होने का फ़र्ज निभाती है !!
सटीक वर्णन ।सुंदर रचना के लिए आपको बधाई ।
सादर ।
बहुत बहुत आभार आप सभी का .... सादर
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