तुम्हारी यादों के रास्ते
चलते-चलते मैं जब भी
अतीत के घर पहुँचती
तुम रख देते
एक संदूक मेरे सामने
मैं तुम्हें महसूस करती
कुछ स्मृतियों की
धूल झाड़ती
कुछ को धूप दिखाती
ये सीली-सीली यादें
कितना कुछ कहती बिना कुछ कहे !
...
तुम कहा करते थे न कि
खुशियों के बीज़ बोने पड़ते हैं
दर्द की कँटीली बाडि़याँ
उग आती हैं खुद-ब-खुद
मैं हँसती थी औ’ कहती थी
तुम्हें तो फिलॉसफ़र होना चाहिये था
नाहक़ ही तिज़ारत में आ गये
तुम मुँह फ़ेर कहते
अब कुछ नहीं कहूँगा !!
...
सच, मैने भी तो बोये थे
कुछ हँसी और मुस्कराहट के पल
इन सीली यादों का साथ तो
नहीं माँगा था
पर ये खुद-ब-खुद
ले आईं थीं वक़्त के साथ नमीं
तुम्हारी बातों का अर्थ
जिंदगी के कितने क़रीब था
सच यादों के धागे बिना
गठान बाँधे भी
आजीवन साथ बंधे रहते हैं !!!