सोमवार, 30 जनवरी 2012

जो लोग जिन्‍दगी को जी लेते हैं .....














तुम्‍हें संवारना आता है
हर बात को बनाना आता है
टूटी-फूटी चीज को भी
तुम दे देती हो एक नया आकार ...
दिशाओं के मार्ग
तुम्‍हारे एक कदम बढ़ाने से
प्रशस्‍त हो जाते हैं
और मंजिल के लिए राह
अपने आप बन जाती है ...
सोचती हूं मैं कई बार आखिर
ये हौसला ... ये उम्‍मीद
तुम तक पहुंचने से पहले कहां गुम थे
मेरी सोच को तुम
पढ़ लेती हो मेरे चेहरे पर
जानती हो क्‍यूं ?
क्‍योंकि तुम्‍हें जिन्‍दगी को जीना आता है
जो लोग जिन्‍दगी को जी लेते हैं
सच कहूं तो वह वंदनीय हो जाते हैं
बिल्‍कुल तुम्‍हारी तरह
ये हंसी क्‍यों ...
मेरी बातों पर भरोसा नहीं क्‍या ...
अरे यह सच है
कई बार पढ़ी हैं तुम्‍हारी आंखे मैने
जिनमें सपने तैरते हैं
हंसी के चिराग से जलते हैं
उम्‍मीदों के  साये लहराते हैं
जितना कोई तुम्‍हारे रास्‍ते में कांटे बिछाता है
तुम उतनी ही जिंदादिली से
अपने कदम वहां रख देती हो ...
जिन्‍दगी के इस सफ़र  में
जहां सन्‍नाटा भी तुमसे बात कर लेता है
खामोशी भी तुम्‍हें पाकर बोल उठती है
और मायूसी भी खिलखिलाती
वीराने में भी बहार आ जाती है
सपने तुम्‍हारे आगे हकी़कत हो जाते हैं
शब्‍द मुखर हो जाते हैं
तुम हो जाती हो अहसासों की एक
बेमिसाल कविता
जिसे हर कोई गुनगुनाना चाहता है
गीत की तरह ...

शनिवार, 28 जनवरी 2012

कुछ तो गलत है ...














इंसाफ़ होने में देर हो तो
अंदेशा होता है अंधेर का
ज़रूर कहीं न कहीं
कुछ तो गलत है ...
''जागते रहो'' की
आवाज़ लगाता सुरक्षा प्रहरी
अनभिज्ञ रहता है
इस बात से कि
दबे पॉंव आकर पीछे से कोई
उसे हमेशा-हमेशा के लिए
चिरनिद्रा में सुला देगा
फिर भी वह
अपने कर्तव्‍य से
विमुख नहीं होता  ...
लेकिन भ्रष्‍टाचार की खाद पड़ी हो जहां
वहां बिन पानी भी
अपराध की असली जड़
हमेशा हरी रहती है
क्‍यूँकि उसका प्रतिफल
भुगतने के लिए
टहनियॉं सदैव लचीली रहती हैं
और पत्तियॉं इतनी नाजुक  व नरम होती हैं
कि कभी भी
आवश्‍यकता पड़ने पर
बिना किसी आवाज के
कटाई-छंटाई हो जाती है
और किसी को
कानो-कान खब़र नहीं होती ....

बुधवार, 25 जनवरी 2012

एक सच इच्‍छाओं का ....


















यूँ ही सोचा एक दिन
ये इच्‍छाऍं कहां से आती हैं
इनका जन्‍मदाता कौन है
इस विचार के आते ही
मन ले गया अपनी ज़मीन पर
दिखाया उसने अनन्‍त इच्‍छाओं का बाग
जिसमें अनगिनत इच्‍छाएँ थीं
कोई जन्‍म ले रही थी
कोई किसी शाख को पकड़कर
लटक सी रही थी
कोई अधूरी सी मैं हैरान हो
मन से कहने लगी
ये सब
मन बोला मैं तो बस इन्‍हें जन्‍म देता हूं
इन्‍हें साकार तो विचार ही करते हैं
कर्म की प्रधानता भी
विचारों से आती है
मैं तो बस समय-समय पर
अनुचित इच्‍छाओं की
कांट-छांट करता रहता हूं
वर्ना विचार इसे पल्‍लवित व पोषित
कैसे कर सकेंगे
क्‍योंकि इन इच्‍छाओं की संख्‍या
मेरे हृदय की धड़कन के समान
जन्‍मती रहती है ...
मैं तो माध्‍यम हूं इन्‍हें
विचारों तक पहुंचाने का
विचार ही कर्म बनते हैं
हमारे कर्म ही हमारी प्रेरणा
मन की बातें
इच्‍छाओं का जन्‍म
विचारों का कर्म हो जाना
इसतरह मुझे एक सच इच्‍छाओं का
बतला गया मन ...

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

चुप्‍पी के तट पर .....

मौन बिना खुद से मिलना
संभव ही नहीं
कुछ कहना हो जब
खुद से कुछ सुननी हों बातें दिल की
तो उतर जाना
तुम शब्‍दों की नाव से
लगा देना किनारे इसे चुप्‍पी के तट पर
चलना फिर शांत चित्‍त से
जहां बंद दरवाजा खुल जाएगा
अंधेरे में दिया ज्ञान का जल जाएगा  ...
खुद से कहना हो जब कुछ तो
बस मौन ही सब कुछ कहता है
शब्‍द थोथे हो जाते हैं
भाषा गौण हो जाती है
संवेदनाएं सिमट जाती हैं
रूह के अंक में
चित्‍त एक थपकी मौन की
पाकर कह उठता है
सारी व्‍यथा ... सोचो तो तुम
गर्भ में थे मौन ही
मृत्‍यु पाकर भी मौन हो जाता है मनुष्‍य
शब्‍द तो बस बीच का खेल रह जाता है
शोरगुल के बीच खुद से दूर होकर
तुमने सोचा है कभी
हम उन्‍हीं शब्‍दों को रोज़ रटते रहते हैं
कुछ नया नही है
हम वही सब दुहराते हैं जो
सदियों से दुहराया जा रहा है
हम वही कह रहे हैं
जो सुनते आ रहे हैं जन्‍म के साथ
शब्‍द जरूरी हैं
क्‍योंकि इनके सिवा हमने
कुछ सीखा ही नहीं है
रिश्‍ते शब्‍दों के संसार शब्‍दों का
इनके बिना हमारा आपका  होना
सार्थक नहीं क्‍यूँ कि माध्‍यम तो यही है
शब्‍दों के बिना हमारा ज्ञान
हमारा पांडित्‍य सब शून्‍य हो जाता है
कुछ कहने का मतलब यह तो नहीं कि
खुद को भूल जाओ
अपने लिए भी वक्‍त निकालो
रूहानी बातों को सुनने के लिए
खुद को पहचानने के लिए
तुम्‍हें आवश्‍यकता है तो सिर्फ मौन की ...
कहीं पढ़ा भी था कुछ समय पहले
चुप होना सबसे बड़ी कला है
बाकी सारी कलाएं शब्‍दों पर निर्भर करती हैं ...

बुधवार, 18 जनवरी 2012

प्‍यार जिन्‍दगी से ....!!!














जब भी कोई कमज़ोरी
परिस्थिति का शिकार होती है तो
सहानुभूति साथ होती है
लेकिन  कमज़ोरी को मोहरा बनाकर
उसका फायदा उठाते लोगों की नज़र से
बच पाना ...
किसी के आंख में कांटे की तरह चुभना
फिर चाहत रखना दिल में
सम्‍मान की कुर्सी पर वह तुम्‍हें
सुसज्जित कर देगा
बेहद नागवार चाहत है यह तो  ...
क्‍या करे ये चाहत चीज़ ही ऐसी है
हमेशा उसी चीज़ के लिए लालायित होती है
जो खुद से दूर होती है
जो पास में होता है उसके लिए
वह हमेशा ही बेपरवाह हो जाती है
आखि़र क्‍यूं ?
ये चाहतें ये मुरव्‍वतें
इतनी बेपरवाह हुआ करती हैं
कि इनके लिए हमेशा
दूर के ढोल ही सुहाने होते हैं ...
प्‍यार जिन्‍दगी से !
जाने क्‍यूँ हर एक को होता है
जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक की अवधि
जिन्‍दगी नाम से अपनी
पहचान क़ायम रखती है
जिसमें तन सुन्‍दर हो तो
जरूरी नहीं कि
मन की सुन्‍दरता भी हो
बस भावना नेक हो
हृदय में यह अहसास बना रहे
जिन्‍दगी सिर्फ एक बार मिलती है
इसे परिस्थितियों का दास नहीं बनने दें
हर हाल में खुश रहें
और दूसरों को भी रहने दें ...
क्‍या ये भाव जिन्‍दगी को
मुस्‍कान देने के लिए काफ़ी नहीं हैं ....????

सोमवार, 16 जनवरी 2012

कुद़रत के इस खेल पर ....!!!

















उम्र जब शून्‍य की अवधि से
मां के ऑंचल से झांककर
घुटनों के बल चलकर
लड़खड़ाते कदमों से अपनों की
उंगली को थाम कर
सीखती चलना फिर
वक्‍त की रफ़्तार के साथ
दौड़ती जिन्‍दगी में सरपट भागी  भी  जहां
वहां नये रिश्‍तों की गर्माहट से
हाथों में हाथ लेकर हमसफ़र का
मंजिलों पे बढ़ाया कदमों को
पर उम्र यहां भी अपनी समझाइशें
साथ लाई
रिश्‍तों ने रिश्‍तों को जोड़ा
लेकिन उम्र ने साल दर साल
अपनी वर्षगांठ मनाई  ...
मुस्‍कराहटों के बीच
उम्र अपने अनुभवों की लकीरें
देह पर छोड़कर
बड़ी ही सुगमता से
स्‍याह बालों को
सफे़दी की झिलमिलाहट
में परिवर्तन की बया़र के बीच
कमर को झुकाती कभी
हाथों में सहारे के लिए
लाठी की टेक  लगाती
हथेली के कंपन के बीच
संभालती काया
शिथिल तन ढीली चमड़ी
वृद्धावस्‍था की मंजिल
पा ही गई उम्र
जाने किस घड़ी अंत हो जाए
सुबह और शाम के बीच
ये चलती हुई धड़कन बंद हो जाए
इस चलने की तैयारी में
अनुभवों को बांटती
यादों को समेटती रूह
आज भी आशीष की पोटली से
दुआओं की बरसात करती  जब
कुछ बूंदे स्‍नेह की
चेहरों पे एक निख़ार ले ही आती  जब
वह कुद़रत के इस खेल  पर
ढली हुई उम्र के साथ
मन ही मन मुस्‍करा उठती ...!!!

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

ख़ामोशी की झोली ...

मैं जब भी कहूं
तेरी याद सताती है
उसके लबों पे
आ के इक तबस्‍सुम ठहर जाती है ...
उसने कहा एक दिन
इन यादों के फेर में मत पड़ना
ये छलती हैं
कसमें टूटती हैं
वादे अक्‍सर झूठे होते हैं
बस कामयाब होती हैं तो कोशिशें
मैं उसकी अनुभवी आंखों में
सूनापन देखकर
हैरान सी हो गई थी
भला यादें कैसे छल करती होंगी
तब उसने कहा मैं भी यूं हीं
इन यादों के साये  में
जब तक रही
सबने मुझे बावरी कहा
लेकिन मैं उस सांझ से क्‍या कहती
जो ढलते ही
मुझे अपनी पनाह में  ले लेती थी ...
उन पलों से क्‍या कहती
जो तेरे साथ गुजारे थे
वही सब तो थे जो मुझे घेर लेते थे
मैं तनहाई और यादें
बस मैं हो गई बावरी लोगों की नज़र में
फिर ... ? मेरी उत्‍सुक निगाहें
पागल ....
मेरे सर पर एक हल्‍की सी चपत लगाई उसने
ऐसा कर ...
इन यादों को तू मेरी झोली में डाल दे
मैं समय-समय पर
इनकी झाड़-पोंछ करती रहूंगी
ताकि गर्द न जमें
और तुझे कोई सताये भी न ...
मैं खुश ...
ऐसा भी होता है ... !
बिल्‍कुल दिल चाहे तो क्‍या नहीं होता ... !!
बस आप यकीं करना
मैने दिल की बात मन ली
सारी यादें खामोशी की  झोली में डाल दी ...
अब मैं भी खुश और वो भी खुश ... !!!
 

सोमवार, 9 जनवरी 2012

यही अस्‍त्र शेष था ....













हर श‍ब्‍द व्‍यथित है क्‍यूं
इसे पीड़ा का भान है
पढ़ता है मन ही मन अन्‍तर्मन को
मेरे बिखरने को  देता है शब्‍द
मेरे मौन को कहता है
सुनता है ध्‍यान से
दर्द ने कब कहा आह !
खुशी ने पकड़ी मेरी बांह
मुस्‍कराया था कब मैं
अपने ही पागलपन पर ....
कितना व्‍याकुल था
तेरे आने पर
कितना टूटा था तेरे जाने पर
सन्‍नाटा गहरा था
मन पे तनहाईयों का पहरा था
पर मेरा साथ नहीं छोड़ा शब्‍दों ने
नाता जलधि सा गहरा था  ....
मैं लांघ जाना चाहता था
हर दर्द को हंसी की आवाज से
आत्‍मा को इस नश्‍वर तन से
मुक्‍त कर देना चाहता था
टूटकर हर बार ये सोचता
शायद ये अंतिम हो
मेरी परीक्षा की घड़ी
मैं फिर से सजग हो चल पड़ता
नई राह पे ...
जहां होती थी कोई
अंजान चुनौती खड़ी ... !!
व्‍यथित शब्‍दों के तीर
कंटीली राहें मेरे लिए थी तैयार
मैंने तैयार किया था
एक मुस्‍कान को
इन्‍हें परास्‍त करने के लिए
मेरे पास यही अस्‍त्र शेष था
विजय पाने का यही
गणवेश था ... !!!

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

दिल दुखे तेरा या मेरा बात एक ही ...













मैं गिला तुमसे करूं भी तो भला किस बात का,
तोड़कर वादों को मनाना तुम्‍हें किस बात का ।

दुनिया की भीड़ में अकेला हो तो कोई क्‍या कहे,
ये दौर ही है ऐसा जहां मोल नहीं जज्‍बात का ।

सर्द बातें सर्द है दिन क्‍यूं दिल दुखाना फिर यूं,
गर्म आंसुओं को गिराना रूख्‍सार पे बेबात का ।

आईने के टुकड़ों सा इस दिल का हाल हुआ है,
हर टुकड़े पे अक्‍स तेरी हर इक मुलाकात का ।

मैने रोका तो बहुत था जबां को कुछ भी कहने से,
उसे यकीं ही नहीं हुआ था मेरी कहीं हर बात का ।

दिल दुखे तेरा या मेरा बात एक ही होती है पर,
दोष होता है इसमें सदा मेरे हर इक ख्‍यालात का ।

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

नज़रों का सम्मान ... !!!














वो पगली है
बिल्‍कुल चंचल हवा सी
वह मुझे देवदार कहती तो
मेरे अधरों पे
एक मुस्‍कान ठहर जाती
मैने उसकी बातों को कभी
दिल से नहीं लिया
सौदागर कोई भी हो
क्‍या फर्क पड़ता है
सौदा तो मुहब्‍बत का ही होना था  ...

उसने कभी कीमत अदा की
एक मुस्‍कराहट से
कभी खरीदना चाहा एहसासों को
आंसुओ से
प्‍यार तो अनमोल ही रहा
जब-जब मैने दूर जाने की बात  की
उसकी पलकें मिचीं छलके आंसू
लब थरथराए लगा था
ये वक्‍त यहीं ठहर जाए ..पर
न वक्‍त ठहरा न हम
कोई हमारी वज़ह से  आहत न हो
हमने उस चाहत को
खुद से जुदा कर दिया ...
बुलन्‍दी का जुनून उसे ले गया
ऊंचाइयों पे
मैं भी हूं शिखर पर
अब मुहब्‍बत नहीं सिर्फ एहसास है
क्‍या खोया क्‍या पाया
जिन्‍दगी ने जिन्‍दगी से ...
वक्‍त आज़ भी हमारे बीच कभी
कुछ लम्‍हे चुराकर लाता है
हम उन लम्‍हों को
दूसरों की जिन्‍दगी संवारने में लगा देते हैं
और फिर उन नज़रों में होता है
हमारे लिए बस एक सम्‍मान ... !!!