साधना शब्दों की
तुम्हारे शब्दों को जब भी मैं अपनी
झोली में लेती वे तुम्हारी खुश्बू से
मुझे पहले ही सम्मोहित कर लेते
तुम्हारे कहे का अर्थ
मैं पूछती जब भी चुपके से
वे संस्कारवश
पहले तो उनका अभिषेक करते
फिर नतमस्तक हो
तुम्हारे श्रीचरणों में अपनी कलम रख देते
तुम सहज़ ही अपना हाथ
मेरे सिर पर रख देती
सौम्य मुस्कान तुम्हारी
कांतियुक्त आभामंडल
एक अलौकिक तेज लिए प्रदीप्तवान
तुम्हारे नेत्र जिसमें
मुझे नज़र आता स्नेह और स्नेह
मैं अपनी आंखों को भीगने से रोक नहीं पाती
....
ये किसका है जादू मै सोचती
तुम्हारे शब्द हैं ये
या फिर तुम्हारी छवि जो
मेरे नयनों में है
या वो ख्याल जो हर वक़्त
दूरियों के बीच भी
सदा पास रहता है
...
तुमने कहा
कभी भी शब्दों का अभिमान मत करना
हो सके तुमसे जितना भी
तुम इनका सम्मान करना
ये मत कहना भरी है मेरी झोली
ये झोली कभी नहीं भरती
हमेशा खाली ही रहती है
जहां से जितना भी जैसे मिले
तुम ज्ञान लो
स्नेह बांटो सदा छोटों को दिल से
बड़ों का जितना भी मिले
आशीष अपने भाल लो
....