ऊँचे लंबे पर्वतों,
के बीच वो शांत,
निर्मल नदी जिसकी,
कलकल करती
स्वर लहरी, अक्सर
पर्वतों को विचलित करती,
ऊँचे लंबे . . . !
सोचते जबतब
हम यूँ जाने कब तक,
खड़े रहेंगे एक जगह,
काश, हम भी इस,
श्वेत सरिता से बहते,
बात अपने मन की,
किसी से कहते,
ऊँचे लंबे . . ।
उधर सोचती
धवल नदी,
मुझसे भले यह पर्वत हैं,
एक जगह खड़े तो हैं,
तनिक भी जीवन में
विश्राम नहीं
क्यों कर जीवन में,
पल भर भी
आराम नहीं . . !
ऊँचे लंबे . . . !
aapne to nadi aur parvat dono ke roop mein manav man ki bhi antarvyatha pragat kar di hai.
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