सोमवार, 27 अप्रैल 2009

दुआ बददुआ बन जाती है . . .

ये न सोचना की दुआयें बेअसर होती हैं,

असर होता है इनका तो हर शय बेअसर होती है ।

न आजमाना कभी किसी की दुआ को वरना,

दुआ बद्दुआ बन जाती है तो कहर होती है ।

महफिले सजती रही, रातें जगमगाती रही,

कौन जाने किस पल आज किसकी सहर होती है ।

टूटते सपने जाने कितने, तो भी बनती नई आशाएं,

जाने कौन वो आशाएं, पूरी किस पहर होती हैं ।

मिलना और जुदा होना, सदा खेल है तकदीर का,

जिन्दगी है जो इन सब बातो से बेखबर होती है ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही बात कही आपने कविता के माध्यम से

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  2. बहुत बढिया रचना है।बधाई।

    टूटते सपने जाने कितने, तो भी बनती नई आशाएं,
    जाने कौन वो आशाएं, पूरी किस पहर होती हैं ।
    मिलना और जुदा होना, सदा खेल है तकदीर का,
    जिन्दगी है जो इन सब बातो से बेखबर होती है ।

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