शनिवार, 1 सितंबर 2012

नहीं सुनी परी कथा कोई !!!


















मैंने नहीं सुनी परी कथा कोई
ना जादू का पिटारा था मेरे पास
ना ही कोई गुडि़या
जिसके साथ मैं खेलती
और बातें करती
अपनी सहेलियों की
कभी रचाती ब्‍याह गुडि़या का
सपने सजाती उसकी पलकों में
मेरी मुट्ठियों में
काम से बचे वक्‍़त में होते थे
रंगीन कँचे
अकेले ही घर के कच्‍चे आंगन में
फैलाती उन्‍हें निशाना लगाती
कभी कागज की पतंग भी बनाती
उसे उड़ाती जब भी
खुद को भी उसी के जैसा उड़ता पाती
मेरी मुस्‍कान देख मां कहती
गिर मत जाना
छत नहीं थी तो हवा भी कम लगती
तब मैं लकड़ी के स्‍टूल पर खड़ी होकर
पतंग उड़ाया करती :)
...
वक्‍़त बदला सपने बदले
लेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
किसी बच्‍चे को रंगीन कँचे
या उड़ती पतंग की
डोर थामें देखती हूँ जब भी
तो खुद को उसी कच्‍चे आंगन में
खड़ा पाती ह‍ूँ
...

29 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन की यादे भुलाए नही भूलतीं।

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  2. बेहतरीन और सुन्दर हमेशा की तरह.......हमारे ब्लॉग जज़्बात......दिल से दिल तक की नई पोस्ट आपके ज़िक्र से रोशन है.....वक़्त मिले तो ज़रूर नज़रे इनायत फरमाएं -

    http://jazbaattheemotions.blogspot.in/2012/08/10-3-100.html

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  3. बहुत ही खूबसूरत अहसासों को उकेरती है आप कविता में. सुन्दर बालमन समझाया बधाई

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  4. बहुत सुन्दर...
    प्यारे भाव..

    सस्नेह
    अनु

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  5. सपने कभी नहीं मरते , जब तब ठिठक जाते हैं और सब हरा हो जाता है

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  6. कभी कही बचपन आँखों के सामने घुमने लगता है और हम भी बच्चे बन जाते है

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  7. वक्‍़त बदला सपने बदले
    लेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
    नहीं बदलता .... चाह कर भी बचपन कि आदतें नहीं बदलती !!

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  8. वक्‍़त बदला सपने बदले
    लेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
    किसी बच्‍चे को रंगीन कँचे
    या उड़ती पतंग की
    डोर थामें देखती हूँ जब भी
    तो खुद को उसी कच्‍चे आंगन में
    खड़ा पाती ह‍ूँ
    sunder saral shabdon me gahre bhav

    rachana

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  9. वक्‍़त बदला सपने बदले
    लेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
    किसी बच्‍चे को रंगीन कँचे
    या उड़ती पतंग की
    डोर थामें देखती हूँ जब भी
    तो खुद को उसी कच्‍चे आंगन में
    खड़ा पाती ह‍ूँ

    बहुत बेहतरीन जज्बा.

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  10. सबको बचपन की यादें इसी तरह आती रहती है, सार्थक रचना, आभार।

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  11. सच है इंसान बचपन को करीब देखता है तो उसी में लौट जाना चाहता है ....
    सार्थक रचना है ...

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  12. सच कहा आपने । भरापूरा हो या अभावग्रस्त, बचपन सदा हमारे साथ चलता है ।सुन्दर कविता ।

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  13. वक्‍़त बदला सपने बदले
    लेकिन मैं नहीं बदली आज़ भी
    किसी बच्‍चे को रंगीन कँचे
    या उड़ती पतंग की
    डोर थामें देखती हूँ जब भी
    तो खुद को उसी कच्‍चे आंगन में
    खड़ा पाती ह‍ूँ

    मैं भी अपने आप को साथ खड़ा पाता हूँ

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  14. भाव प्रवण कविता। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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  15. कुछ यादें ज़हन में ऐसे वाबस्ता हो जाती हैं जैसे किसी चित्र में बक्ग्राउन्ड ...बहुत सुन्दर

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  16. समय के साथ-साथ कितना कुछ बदल जाता है ...गुजरे दिन अक्सर यूँ ही जाने कितने अवसरों पर हमारे सामने आ खड़े होते हैं ...
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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  17. बचपन के अहसासों का पुनर्जन्म होता रहता है. बहुत सुंदर रचना.

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