गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

रिश्‍तों की अग्नि में ...

मैं लकड़ी होता

और

कोई मुझे जलाता,

तो जलकर

मैं इक आग हो जाता,

डाल देता

कोई उन जलते हुये

अंगारों पर,

कुछ बूंदे पानी की

तो कोयला हो जाता,

कोयले को जलाता

फिर कोई

एक बार तो,

इस बार मैं जलकर

राख हो जाता ।

लेकिन

इंसान हूं

रिश्‍तों की अग्नि में

जाने कितनी बार

जला हूं मैं

बुझा हूं मैं

भीगा भी हूं मैं

लेकिन जलकर

अभी राख नहीं हुआ

कि मिल सकूं माटी

में बनके माटी ।

21 टिप्‍पणियां:

  1. दिल में उतरत हुवा लिखा है ........ ज़िन्दगी पल पल जलती है ........

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  2. uff...........kya khoob likha hai.......bahut hi sundar aur gahan soch.

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  3. भीग कर जलेगी लकडी तो आग कहाँ पकडेगी ...
    बस धुआं ही धुआं ..!!

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  4. कितना करीबी एहसास है. शायद जलते हुए एहसासो को परिणिति का आभास चाहिये.
    बहुत सुन्दर रचना

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  5. भाव पूर्ण मार्मिक रचना पसंद आई यह

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  6. रिश्तो की आग है .....मद्धम मद्धम जलाती है ...........अंततः तो राख हो ही जाना है ...लेकिन राख राख में भी अंतर होता है ..........एक राख धूल में मिल जाती है .....एक राख माथे पर लगायी जाती है .......... शायद माथे पर लगायी जाने वाली राख रिश्तो की आग में ही पकायी जाती है .....(हा ! पकायी जाती है! )

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  7. लेकिन

    इंसान हूं

    रिश्‍तों की अग्नि में

    जाने कितनी बार

    जला हूं मैं

    बुझा हूं मैं

    भीगा भी हूं मैं

    लेकिन जलकर

    अभी राख नहीं हुआ

    कि मिल सकूं माटी

    में बनके माटी ।


    bahut hi maarmik ehsaas ke saath likhi gayi ek sunder rachna.... bhaavpoorn rachna...

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  8. सुंदर रचना है यह..और लकड़ी की अलग-२ अवस्थाओं का इंसान की दशाओं से साम्य बहुत प्रासंगिक भी..बधाई

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  9. वाह ..एक संवेदना से निहित बेहतरीन रचना...धन्यवाद

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  10. बहुत सही लिखा है। पढा कल था, टिप्पणी आज दे रहा हूं

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  11. मैं लकड़ी होता

    और

    कोई मुझे जलाता,

    तो जलकर

    मैं इक आग हो जाता,

    डाल देता

    sunder hai

    जवाब देंहटाएं
  12. आप सबका आभार, प्रोत्‍साहित करने के लिये, सुझाव देने के लिये, यूं ही मेरा मार्गदर्शन करते रहें ।

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  13. लेकिन

    इंसान हूं

    रिश्‍तों की अग्नि में

    जाने कितनी बार

    जला हूं मैं

    बुझा हूं मैं

    भीगा भी हूं मैं

    लेकिन जलकर

    अभी राख नहीं हुआ

    कि मिल सकूं माटी

    Ati Sundar !!

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  14. सदा जी आपकी रचना ने तो
    बाहर से भीतर तक झखझोर कर रख दिया।
    बहुत मर्मस्पर्शी रचना पोस्ट की है।
    बधाई।

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