मन की नदी में
तर्पण किया है पापा भावनाओं से,
भीगा सा मन लिए ...
इस पितृपक्ष
फिर बैठी हूँ आकर, भोर से ही
छत पर, जहाँ कौए के
कांव - कांव करते शब्द
और सूरज की बढ़ती लालिमा
के मध्य, निर्मल स्नेह भर अंजुरी में
कर रही हूँ अर्पित,
नेह की कुछ बूंदें गंगाजल के संग
आशीष की अभिलाषा लिए!!!
…..
© सीमा 'सदा'
नमन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं--
पिताश्री को नमन।
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार ( 7 सितंबर 2020) को 'ख़ुद आज़ाद होकर कर रहा सारे जहां में चहल-क़दमी' (चर्चा अंक 3817) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
अपनों की याद लिए मन के कोने में मुरझाए मुकुल को पल्लवित करती सी अभिव्यक्ति।बहुत ही सुंदर मन को छूती।
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम दी।
नमन। बहुत भावपूर्ण रचना। मन की श्रद्धा को अर्पण करना ही तो श्राद्ध है।
जवाब देंहटाएंसादर नमन
जवाब देंहटाएंनमन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण सृजन...
जवाब देंहटाएंपितृदेवो नमः
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कोमल भावों से सजी सुंदर रचना सीमा जी ।
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण ।
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