कुछ जि़दों में से
एक को आज मैने
बाँध दिया है
ओखल डोरी से
और बंद कर दिया है
मन के अँधेरे कमरे में
सोचा है अब
नहीं जाऊँगी पास इनके.
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इन जिदों की मनमानी
अपनी हर बात को पूरा करवाना
बहुत हुआ
कुछ समय पश्चात्
उस अँधेरे कमरे से आवाज आती है
मेरा कुसूर तो बताओ
मैं हथेलियाँ रखती कानों पे
पर क्या होता
आवाज़ तो मन के भीतर से थी
कुछ ताक़तें
न हीं क़ैद होती है न भयभीत
उन्हें लाख अँधेरे कमरे में रख लो
वो हौसले की मशाल बनकर उभरती हैं
जि़द भी एक ऐसी ताक़त है
जो ठान लेती है एक बार
उसे पूरा करके ही दम़ लेती है
फिर उसकी शक़्ल में
चाहे मुहब्बत हो या नफ़रत
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