मन बग़ावत करने लगा है
आजकल उसका
समझाइशो की भीड़ में
नासमझ मन
हर बात पर खुद को
कटघरे में पाकर
बौखला उठता है जब
आक्रोश उसका
फूलों की जगह कांटों को
थामकर अपनी
रक्त रंजित हथेलियों से
तर्पण कर उठता है
दर्द का ...
चीखें पत्थर दिल दीवारों से
टकराकर लौटती हैं
रूदन के बीच जब
कंपकपाते कदम साथ नहीं देते
फिर चौखट को लांघने का
....
सोचती इतना सन्नाटा न होता तो
वो अनसुना कर देती
इन चीखों को
एक कोना जो मन का
हमेशा उसकी परवाह में बेकरार हो
उसका ही रहता था सदा
उसकी ही सुनता था सदा
आज वो अपने हक़ के लिए
बस क़ातर नयन लिए
उसकी राह निहारता रहता है
आओगे तुम कभी तो
इस राह पर ... इस राह पर
रहूंगा मैं सदा ... तुम्हारा ही ...
तुम्हारे लिए ही ...!!!