मंगलवार, 25 मई 2010

फिसल गया वक्‍त ....


मैं किसी की आंख का ख्‍वाब हूं,

किसी की आंख का नूर हूं ।

भूल गया सब कुछ मैं तो खुद,

अपने आप से भी दूर हूं ।

हस्‍ती बनने में लगा वक्‍त मुझको,

पर अब मैं किसी का गुरूर हूं ।

फिसल गया वक्‍त रेत की तरह,

पर मैं ठहरा हुआ जरूर हूं ।

हक किसी का मुझपे मुझसे ज्‍यादा है,

मैं अपने वादे के लिये मशहूर हूं ।

18 टिप्‍पणियां:

  1. फिसल गया वक्‍त रेत की तरह,
    पर मैं ठहरा हुआ जरूर हूं ।
    वक्त हमेशा मुट्ठी में बन्द रेत ही है.
    सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं
  2. रचना काबिले तारीफ़ है, शुभकामनाएं|

    जवाब देंहटाएं
  3. मन की व्यथा का सही चित्रण किया है आभार

    जवाब देंहटाएं
  4. दिल से लिखी गयी रचना बेहद पसंद आई.....एक कवि मन की मासूमियत दिखाई दी....शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  5. कविता खूबसूरत तो है ही, सीधे दिल को छू जाती है।

    जवाब देंहटाएं
  6. शब्द और भाव बेमिशाल - प्रशंसनीय प्रस्तुति - हार्दिक बधाई

    जवाब देंहटाएं
  7. हक किसी का मुझपे मुझसे ज्‍यादा है,

    मैं अपने वादे के लिये मशहूर हूं ।


    सुन्दर रचना ...सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ...पढ़कर अच्छा लगा ..ऐसे ही लिखते रहे मेरी शुभकामनाये आके साथ है
    http://athaah.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  8. मुझपर मुझसे ज्यादा किसी का हक है..वाह क्या बात है.....

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत खूब ... अपनी हस्ती को संभालना गरूर नही होता .... लजवाब लिखा है ...
    बहुत दीनो बाद आपका आना हुवा है आज ब्लॉग पर व.. आशा है आप कुशल होंगी ...

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत ही सुन्दर और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है! बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  11. हस्‍ती बनने में लगा वक्‍त मुझको,
    पर अब मैं किसी का गुरूर हूं ।

    फिसल गया वक्‍त रेत की तरह,
    पर मैं ठहरा हुआ जरूर हूं ।

    जीवन संघर्ष का अच्छा प्रस्तुतिकरण

    जवाब देंहटाएं
  12. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन में शामिल किया गया है... धन्यवाद....
    सोमवार बुलेटिन

    जवाब देंहटाएं