मैं लकड़ी होता
और
कोई मुझे जलाता,
तो जलकर
मैं इक आग हो जाता,
डाल देता
कोई उन जलते हुये
अंगारों पर,
कुछ बूंदे पानी की
तो कोयला हो जाता,
कोयले को जलाता
फिर कोई
एक बार तो,
इस बार मैं जलकर
राख हो जाता ।
लेकिन
इंसान हूं
रिश्तों की अग्नि में
जाने कितनी बार
जला हूं मैं
बुझा हूं मैं
भीगा भी हूं मैं
लेकिन जलकर
अभी राख नहीं हुआ
कि मिल सकूं माटी
में बनके माटी ।
मार्मिक एहसास!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सोच है आप की
जवाब देंहटाएंदिल में उतरत हुवा लिखा है ........ ज़िन्दगी पल पल जलती है ........
जवाब देंहटाएंuff...........kya khoob likha hai.......bahut hi sundar aur gahan soch.
जवाब देंहटाएंभीग कर जलेगी लकडी तो आग कहाँ पकडेगी ...
जवाब देंहटाएंबस धुआं ही धुआं ..!!
khubsoorat rachna...maarmik ahsaason se yukt
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया व सुन्दर रचना है।बधाई।
जवाब देंहटाएंकितना करीबी एहसास है. शायद जलते हुए एहसासो को परिणिति का आभास चाहिये.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
भाव पूर्ण मार्मिक रचना पसंद आई यह
जवाब देंहटाएंरिश्तो की आग है .....मद्धम मद्धम जलाती है ...........अंततः तो राख हो ही जाना है ...लेकिन राख राख में भी अंतर होता है ..........एक राख धूल में मिल जाती है .....एक राख माथे पर लगायी जाती है .......... शायद माथे पर लगायी जाने वाली राख रिश्तो की आग में ही पकायी जाती है .....(हा ! पकायी जाती है! )
जवाब देंहटाएंलेकिन
जवाब देंहटाएंइंसान हूं
रिश्तों की अग्नि में
जाने कितनी बार
जला हूं मैं
बुझा हूं मैं
भीगा भी हूं मैं
लेकिन जलकर
अभी राख नहीं हुआ
कि मिल सकूं माटी
में बनके माटी ।
bahut hi maarmik ehsaas ke saath likhi gayi ek sunder rachna.... bhaavpoorn rachna...
सुंदर रचना है यह..और लकड़ी की अलग-२ अवस्थाओं का इंसान की दशाओं से साम्य बहुत प्रासंगिक भी..बधाई
जवाब देंहटाएंमार्मिक एहसास कराती रचना
जवाब देंहटाएंवाह ..एक संवेदना से निहित बेहतरीन रचना...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना...... निरन्तरता बनाए रखें..
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है। पढा कल था, टिप्पणी आज दे रहा हूं
जवाब देंहटाएंमैं लकड़ी होता
जवाब देंहटाएंऔर
कोई मुझे जलाता,
तो जलकर
मैं इक आग हो जाता,
डाल देता
sunder hai
आप सबका आभार, प्रोत्साहित करने के लिये, सुझाव देने के लिये, यूं ही मेरा मार्गदर्शन करते रहें ।
जवाब देंहटाएंलेकिन
जवाब देंहटाएंइंसान हूं
रिश्तों की अग्नि में
जाने कितनी बार
जला हूं मैं
बुझा हूं मैं
भीगा भी हूं मैं
लेकिन जलकर
अभी राख नहीं हुआ
कि मिल सकूं माटी
Ati Sundar !!
सदा जी आपकी रचना ने तो
जवाब देंहटाएंबाहर से भीतर तक झखझोर कर रख दिया।
बहुत मर्मस्पर्शी रचना पोस्ट की है।
बधाई।
चिंतन की भावभूमि पर उपजी एक गंभीर कविता।
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स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।