सोमवार, 20 जुलाई 2009

जाने क्‍यों . . .?

जाने क्‍यों वह,

आज स्‍कूल नहीं,

जाना चाहती,

पूछने पर बस,

उसका वही ठुनकना

हम स्‍कूल नहीं जाएंगे,

जाने क्‍यों

क्‍या बात है

मुझे अभी सोना है

रोज-रोज जल्‍दी

जगा देती हो

उठो ब्रश कर लो

तैयार हो जाओ

जल्‍दी दूध पी लो

रिक्‍शे वाला

आता होगा

मम्‍मा तुम रोज

एक ही बात बोलती हो

जाने क्‍यों

सब कुछ

एक ही सांस में

बोल गई गुड्डो

मैं हैरान सी

उसकी बड़ी-बड़ी

उनींदी आंखों में

शबनम की बूंदों से

आंसुओ को देख

विचलित हो गई

कहीं मैंने

इसका बचपन

इसके सपने

छीन तो नहीं लिए

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपने हर बच्चे की व्यथा लिख दी है इस रचना के माध्यम से...आज के युग में अपने आपको आगे बनाये रखने की होड़ में बच्चे अपना बचपन कुर्बान कर रहे हैं...तरस आता है नन्हें मुन्नों को बस्ता लादे सुबह सुबह स्कूल जाते देखते...
    नीरज

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  2. रोज इसी एक लम्हे से कई बार गुजरती है माँ

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  3. सच मुच आज कल हर घर की यही कहानी है........... आपने सब का प्रतिनिधित्व किया है इस रचना में............. सोचने को मजबूर किया है

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  4. bahut hi maasum bhaw liye huye kawita......atisundar.....bahut hi pyari kwita

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  5. सही कहा आपने ..आज कल बच्चे बेचारे छोटी सी उम्र से ही मीठी नींद से जगा दिए जाते है

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  6. बहुत स्वाभाविक और मासूम सा प्रश्न है :
    कहीं मैंने
    इसका बचपन
    इसके सपने
    छीन तो नहीं लिए
    ==
    फिर से हमे विचार करना ही होगा अपनी पद्धति पर

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