बुधवार, 20 मई 2009

बन्‍द कर के मुठ्ठी . . .

उम्र भर का रिस्‍ता वो तोड़ आया पल में,
जाने क्‍या देखा उसने आने वाले कल में ।

पलकों पे उसकी आंसू लबों पे तबस्सुम,
सारी यादों को जो छोड़ आया पल में ।

बन्‍द कर के मुठ्ठी खुद को ही दोष देता,
कैसे मैं आ गया उस बेवफा के छल में ।

बुराई का बदला बुराई मिला है नहीं समझा,
कोई, कैसे समझ पाता वो नादां इक पल में ।

कैसे मिटाऊं इन फासलों को ‘सदा’ के लिये,
बता दे मुझे तू आने वाले हर एक पल में ।

5 टिप्‍पणियां:

  1. बन्‍द कर के मुठ्ठी खुद को ही दोष देता,
    कैसे मैं आ गया उस बेवफा के छल में ।

    -बेहतरीन!!

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  2. वाह ! वाह ! वाह ! लाजवाब ग़ज़ल !

    कोमल भावों को बहुत ही सुन्दर ढंग से अभिव्यक्ति दी है आपने.....

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