मंगलवार, 23 जुलाई 2013

कोई बोधतत्‍व था मन को पकड़े हुए !!!



















सच झूठ के पर्दों के नीचे से
अपना हाथ हिलाता है
जाने कितने चेहरे
मुस्‍करा देते हैं उस क्षण
त्‍याग तपस्‍या पर बैठा था
पलको को मूँदे
कोई बोधतत्‍व था मन को  पकड़े हुए
सोचो कैसे ठहरा होगा
यह शरारती मन
....
मन की कामनाओं को बखूबी जानती हूँ,
बस भागता ही रहता है
पल भर भी स्थिरता नहीं है
क्षणांश जब भी क्रोध से कुछ कहा
एक कोना पकड़
सारे जग से नाता तोड़
आंसुओं से चेहरे को धोता रहा
हिचकियों को बुला भेजा
देने को सदाएँ
इसको साधना इतना आसान नहीं
जब भी यह हाथ लगा है किसी के तो ...
....
युगांतकारी परिवर्तन
जब भी  होते हैं
सोच बदल जाती है
साथ ही बदल जाता है
जिन्‍दगी को देखने का नजरिया भी
विश्‍वास लौटकर आता है
उलटे पाँव जब
तब पैरों के छाले पीड़ा नहीं देते !!!

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

निकलना होगा विजेता बनकर !!!!

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मुश्किल भरे रास्‍तों से गुज़र कर
दिल और दिमाग के कुछ हिस्‍सों में
गज़ब की ताकत आ जाती है
जंग लगे ख्‍याल भी
बड़ी ही फुर्ती से
अपना नुकीला पन दर्शा देते हैं
चोट खाया हिस्‍सा
जख्‍मों के निशान पर
एक पपड़ी मोटी सी धैर्य की डाल
बेपरवाह हो जाता है !!
...
मनमाने सुखों के लक्षागृह
किसके हुए हैं
निकलना होगा विजेता बनकर
तब ही तो धुन के पक्‍के लोग
इस मजबूती में ही जीते हैं
वर्ना उनके पास जीने की कोई वजह
शेष रहती ही नहीं है
माँ कहती है कुछ बातें वक्‍़त पर छोड़ दो
तो मन को बड़ा सुकून मिलता है
ये सच है कि कर्तव्‍य की सीढि़याँ
बड़ी ही ऊँची और घुमावदार होती हैं
चढ़ते चलो तो मंजिल मिल ही जाती है !!