सच झूठ के पर्दों के नीचे से
अपना हाथ हिलाता है
जाने कितने चेहरे
मुस्करा देते हैं उस क्षण
त्याग तपस्या पर बैठा था
पलको को मूँदे
कोई बोधतत्व था मन को पकड़े हुए
सोचो कैसे ठहरा होगा
यह शरारती मन
....
मन की कामनाओं को बखूबी जानती हूँ,
बस भागता ही रहता है
पल भर भी स्थिरता नहीं है
क्षणांश जब भी क्रोध से कुछ कहा
एक कोना पकड़
सारे जग से नाता तोड़
आंसुओं से चेहरे को धोता रहा
हिचकियों को बुला भेजा
देने को सदाएँ
इसको साधना इतना आसान नहीं
जब भी यह हाथ लगा है किसी के तो ...
....
युगांतकारी परिवर्तन
जब भी होते हैं
सोच बदल जाती है
साथ ही बदल जाता है
जिन्दगी को देखने का नजरिया भी
विश्वास लौटकर आता है
उलटे पाँव जब
तब पैरों के छाले पीड़ा नहीं देते !!!