बुधवार, 7 अप्रैल 2010

क्‍यों ...?


उड़ जाती नींद आंखों से क्‍यों,

जब ख्‍वाब कोई टूट जाता है ।

गुस्‍ताखियां याद आती हैं क्‍यों,

कोई जब माफी मांग के जाता है ।

बदलता वक्‍त है हम दोष देते क्‍यों,

उसे जब कोई छोड़ के चला जाता है ।

पतझड़ में पीले पत्‍तों की जुदाई क्‍यों,

जो ये शाख से अपनी ही टूट जाता है ।

खामोशी का हर लम्‍हा सूना क्‍यों,

हर पल इतना गुमसुम कर जाता है ।