सोमवार, 30 मार्च 2009

कोख में पली हूँ नौ माह मैं भी तो माँ,

रस्म के नाम पर, रिवाज के नाम पर जाने,
कब तक होती रहेगी यूँ ही कुर्बान जिंदगी !

पोछ्कर अश्क अपनी आँख से, पूछती जब,
बेटी माँ से क्यों दी मुझे तूने ऐसी जिंदगी !

मेरा कोई दोष जो मुझे मिला ये कन्या जन्म्,
क्या दर्द, और वेदना बनके रहेगी ये जिंदगी !

तेरी कोख में पली हूँ नौ माह मैं भी तो माँ,
आ के धरा में करती हूँ मैं तेरी भी बंदगी !

माना की मैं पराई हूँ "सदा" से लोग कहते आये,
पीर मेरी समझ ली बिन कहे, तुमने दी जिंदगी !

तिरस्कृत हुई सहा अपमान भी मैंने, नहीं छोड़ा ,
फिर भी मैंने ईश्वर इसे, जो मिली मुझे जिंदगी !

दूँगी संदेश जन-जन को मैं, करूंगी सार्थक जीवन को,
अभिशाप नही वरदान अब बेटी बचाओ इसकी जिंदगी !

5 टिप्‍पणियां:

  1. दूँगी संदेश जन-जन को मैं, करूंगी सार्थक जीवन को,
    अभिशाप नही वरदान अब बेटी बचाओ इसकी जिंदगी !
    सुन्दर रचना के लि‌ए बधा‌ई
    ब्लोगिंग जगत में स्वागत है
    लगातार लिखते रहने के लि‌ए शुभकामना‌एं
    कविता,गज़ल और शेर के लि‌ए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
    http://www.rachanabharti.blogspot.com
    कहानी,लघुकथा एंव लेखों के लि‌ए मेरे दूसरे ब्लोग् पर स्वागत है
    http://www.swapnil98.blogspot.com
    रेखा चित्र एंव आर्ट के लि‌ए देखें
    http://chitrasansar.blogspot.com

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  2. आपका सन्देश जन-जन तक पहुंचे, शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  3. सादर अभिवादन
    ब्लोग्स के साथियों मे आपका ढेर स्वागत है

    कोटा मे हुये तीन दिवसीय नाट्य समारोह का संचालन करते हुये, शहर मे एक ओडीटोरियम की माग के संदर्भ मे कुछ एक मुक्तक लिखने मे आये - देखियेगा


    ये नाटक ये रंगकर्म तो ,
    केवल एक बहाना है
    हम लोगों का असली मकसद
    सूरज नया उगाना है

    कभी मुस्कान चेहरे से हमारे खो नहीं सकती
    किसी भी हाल मे आंखें हमारी रो नही सकती
    हमारे हाथ मे होंगी हमारी मंजिलें क्योंकि
    कभी दमदार कोशिश बेनतीजा हो नही सकती


    दुनियाभर के अंधियारे पे , सूरज से छा जाते हम
    नील गगन के चांद सितारे , धरती पर ले आते हम
    अंगारों पे नाचे तब तो , सारी दुनिया थिरक उठी
    सोचो ठीक जगह मिलती तो ,क्या करके दिखलाते हम


    दिखाने के लिये थोडी दिखावट , नाटको में है
    चलो माना कि थोडी सी बनावट , नाटकों मे है
    हकीकत में हकीकत है कहां पर आज दुनिया मे
    हकीकत से ज्यादा तो हकीकत , नाटको मे है


    ये जमाने को हंसाने के लिये हैं
    ये खुशी दिल मे बसाने के लिये हैं
    ये मुखौटे , सच छुपाने को नहीं हैं
    ये हकीकत को बताने के लिये हैं

    डा. उदय ’मणि’ कौशिक
    http://mainsamayhun.blogspot.com

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मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए .....